हाय इन नस नाड़ियों में, नदी कोई बह रही है।

 

यह….. 

उजाला नहीं;

धू…प, है तेरी!

उजा..ले….. 

कुछ और… 

होते… हैं।

‘जो’ आंखे 

बंद होती हैं,

तेरे आने से..।

उसके आने 

से खुल…ती हैं।

भाव: जीवन सहज और सरल प्रवाह है, हमारा अहम इसे विक्षुब्ध कर देता है। लोक मानव अति से दूर सुख अनुभूत करता है।

अरे वो….वो, 

घुप अंधेरों… से

रात भर, 

लड़…ता है।

तूं,…

तूं.. तो.. ,

बस, छांव से 

ही भिड़ता है।

भाव: जन सामान्य अपने जीवन में जीवन के यथार्थ से लड़ कर जीता है, वह वास्तविकता को झेलकर आगे बढ़ता है, जब की कुलीन मात्र आन बान और शान के लिए संघर्ष करता है।

वो…उजांस हैं,

स्पंदन है,

कितनी दू…र से 

सहलाता है सबको।

एक तूं, 

तूं तो सदा…बस

सबके सिरों पर 

चढ़ा रहता है।

भाव: जीवन का वास्तविक संघर्ष अपने लोगो, अपनी प्रवृत्तियों से प्रियता से लड़ा जाता है। उसमे धैर्य, अपनापन, विश्वास रहता है, जबकि अहम और नाक की लडाई मूर्खता पूर्ण होती है।

नहीं, नहीं. नहीं.., 

थोड़ा दूर रह.., मुझ..से,

तुझमें झुलस है,

तेज....है.?, गर्मी है...

बहुत कुछ होगा..? 

सब बेकार है,

जला देगा तूं, 

मेरे 

सुकुमार पौधे।

भाव: जीवन के लिए अति का बहिष्कार अच्छा है। जो काम सूई से आसानी से हो तो तलवार नहीं चाहिए।

“उजाले” में 

जो पूरब से

आते है, नमीँ होती है।

जीवन होता है।

ओस ही नही, 

आस छिपी होती है।

हां.. हां.., 

हर नए की शुरुआत, 

यहीं से होती है।

ऊर्जा समसती है

दिल में दिमाग में

नस नाड़ियों में,

कोई नदी बहती है।

भाव: पूरब दिशा उम्मीद की होती है, हर सवेरा जीवन देता है, स्फूर्ति और उल्लास का स्रोत है। हर काम सलीके से शांति से होना चाहिए। गति के भंवर डुबा भी सकते हैं।

तेरी, ते..ज धू..प, 

हर लेती है,

चैन, ताकत, संतुलन।

थका देती है। 

सुस्ताता हूं, 

इतना ही नहीं

तेरे दुश्मन 

छाया के पास 

जाता हूं।

सही कहता हूं

तभी, आराम पाता हूं।

भाव: जीवन में अति, तीव्र गति, अति-विलासता, अत्यधिक इच्छा भरी दौड़ भाग ज्यादा स्थाई नहीं होती, स्वस्थ तन मन इससे दूर सुख मानता है।

सारांश

इसीलिए कहता हूं,

थोड़ा धीरे चलो, 

तपो मत, 

सहिष्णुता और प्रेम की

शीतलता में बहो। 

मौका दो,

लोग भी चलें, 

तुम भी चलो,

दौड़ तो होने दो।

मैदाने दुनियां में।

रेफ्री को मानो, 

ईश्वर होता है जानो।

प्यार फैलता है, 

यही इसकी

विशेषता है। 

विश्वास करो।

भाव: हमे सांमजस्य, मैत्री, प्रेम, करुणा, अपनाना चाहिए। सभी को मौका देना चाहिए, स्वार्थ से ऊपर मनुषत्व है। विशाल और विराट प्रेम के बिना नहीं सोचा जा सकता।

नमीं और जमीं 

कभी अलग 

नहीं होते।

गर अलग हों तो…. 

न करुणा होगी 

न प्रेम।

न ये तुम्हारी 

चमकती, 

और हमारी

जीर्ण शीर्ण दुनियां।

मानव और मानवता के लिए अच्छे गुणों को अपनाना ही होगा, सच्ची प्रगति तभी होंगी।

जय प्रकाश






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