बेटी की देह, बाग की बेल,
बेटी की देह, बाग की बेल,
जतन से पाला,
अरमान सी बढने लगी।
एक लटकते धागे पे चढ़ाया,
चढ़ने लगी, खुशियां फैल गईं।
मां ने हाथों से सहलाया,
पिता ने खुश होकर दुलराया।
कुछ ही दिनों में बेल में शाखाएं फूटी,
सभी आह्लादित हुए, तन प्रफुल्लित,
देखते ही देखते कलियां आई, फूल खिले।
फिर पूरे घर की आंखे खुशी से सजल हुईं।
अबतक सब कुछ अपनो तक सीमित था,
पर क्या खुशबू रोके रुक जाती,
फैली और इतना की,
भौरों की कतारें लग गईं,
फूलों के असमय नुकसान से
दुखी नौकर ने घातक दवा का छिड़काव किया।
भौरे तो चले गए,
पर बेल भी अब मुरझाने लगी है।
इसमें कहीं कहीं कांटे भी निकलने लगे है,
सब दुखी,
समां बदल गया,
सपनों पे पानी फिर गया।
यही क्रम चलता रहा,
एक दिन मालिक की सलाह से
माली के हाथ से बेल की जड़ ……..दी गई।
हिरसो मत दुखी मत होओ।
बेल को तो कुछ भी नहीं हुआ।
उसकी जड़ काटी नहीं गई,
सम्हाल कर उखाड़ी भी नहीं गई।
अन्यत्र अच्छी जगह लगाने के लिए,
रोपने के लिए मुलायम पत्तों में लपेटी गई।
बेल तो जिंदा है, पर अपने कांटों पर शर्मिंदा है।
मालिक ने ही सोच समझ कर जल्दी से,
एक शुभ मुहूर्त में शहनाई बजवाई।
बेल को पास के शहर में,
खूब सारी खाद पानी देकर,
तसल्ली से लगवाई।
अब सभी नौकर के साथ
खुशी खुशी मिलने जाते हैं,
एक दूसरे को देखकर
फिर हंसते मुस्कुराते हैं।
जय प्रकाश
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