सामो-सुबह वह व्यस्त था इतना।


वह समंदर ही था, 

जोश भरा था उसमे,

गरजता था, 

मदहोशी थी उसमें।

क्या आगे, क्या पीछे, 

कोई नहीं,

अपने 

आगे पीछे दिखता 

था उसको।


हाथो में केवल 

शक्ति ही नहीं,

महंगी धातुएं, 

कीमती से कीमती

"पत्थर" थे उसके,

अपने वजन के 

साथ ही साथ 

न जाने.... 

कितने... वजन के

सुवर्ण आभूषण 

थे उसके।


रुपयों की गड्डियों..को. 

गिनने... से

कहां कभी भी 

फुर्सत थी उसको।

मीटिंग्स के पहले, 

मीटिंग्स के बाद

कब 

नाश्ते/ खाने की 

फुर्सत थी 

उसको।


सामो-सुबह 

वह व्यस्त था 

इतना!

अपने बेटे का 

कपोल भी

कभी नहीं छुआ उसने

पुष्प पंखुरियां! 

खूब खिलीं..., 

बिखरीं...बागों में,

सूर्यास्त !

कब हुआ, 

कहां पता उसको ।


हां वो एक सफल 

किरदार है, 

सोचता था!

अपने आगे 

किसी की 

कब कहां सुनता था।

सम्मान था, 

लोगों में, क्या 

दबदबा था!

सच बोलूं यार, 

कैसा कैसा उसका 

रुतबा था।


पर सोचता हूं ! 

उसने जिंदगी 

जीने के लिए,

जिंदगी के "जीनो" पर 

चढ़ने के लिए

जिंदगी ही गंवा…. दी।


तरस आता है, 

दुख होता है,

इस दुनियांवी तरक्की, 

और

इस कामयाबी के 

फीते पर!

सर्कस का बंदर! 

अच्छा था,

इस फजूल 

प्रदर्शन बाजी से।


क्योंकि

खोया ही खोया, उसने! 

जीवन, 

और जीवन की…..

सारी सौगातो को।


समय के साथ, 

समय के बाद।

सोचो कितना 

दूर रहा वो :

चांदनी रातों, 

प्रिय की बातों,

चांदनी का साथ, 

अपनो का हाथ।


चंदन से शीतल, 

सुगंधित आशीर्वाद से,

गंधमय तन मन ,

महुए की ताज़ी चुअन, छुअन से


स्निग्ध काले मोती सी चमकती

लावण्यमय शिशु की आंखो 

के आमंत्रण से।

कोमल स्पर्श, 

मदमाती गंध,

टप टप गिरती चीजों की टपकन से।

हवाओं का बांस-पत्तियों में गुंजरते

सुरीली बांसुरी बजाती सरगम से।

बच्चों के निष्पाप, स्वच्छ नेत्र दर्शन

उनकी दूधिया हंसी, किलकती किलकन से।


उसने तो जीवन छोड़ 

सब अपनाया,

ऑक्सीजन विहीन 

मृत शीतल हवा पाया।

पैकेटों में बंद 

बासी भोजन किया,

नकली हंसी, 

नकली खुशामद 

में ही जिया।

प्रकृति के जीवंत 

वैभव से दूर,

मृत कंकरो, 

पत्थरो, 

धातुओं की चमक

की तहों में लिपटा 

ही जिया वो।

क्रमशः आगे पढ़ें।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: मित्रों जीवन मात्र महत्वाकांक्षाओं, चरम उपलब्धियों के लिए नहीं अपनी जीवन यात्रा के दौरान आनंद की अनुभूतियों को करने से भी अपनी उपयोगिता प्राप्त करता है। सांसारिकता हमे अजगर से लपेटती जाती है अंत में पछताना ही शेष बचता है। अतः प्रतिक्षण जीवन जिएं, सफलता, जीत, प्राप्तियां मात्र लुभावनी हैं भीतर से शुष्क और अर्थहीन, उबासी वाली होती हैं।

जयप्रकाश मिश्र







Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता