कहने को तो ये जिंदगी थी,

जैसा मैंने पाया इसको,


कहने को तो ये जिंदगी थी,

सच कहूं तो,

एक किताब सी ही थी।

खुद ब खुद खुलती गई,

अंधेरे के बाद 

उजाले के साथ,

दिनों दिन। 

खुद के भीतर,

और दुनियां में बाहर।


पन्ने बेशक 

कागज के तो न थे, 

दिनों... के थे,

फर्क... तो था। 

क्योंकि, पढ़ने वाला

खुद, अपनी कथा, 

जीते जी ही, पढ़ रहा था।

किताब ने उसको 

समेटा ही नहीं 

लपेटा भी था 

खूब भीतर तक।


शुरू के पेज, 

थोड़ा चिकने थे, 

मुलायम भी थे।

हां सच कहें तो 

आपस में चिपकते हुए भी

चिपकते न थे।

पर वो पन्ने, धीरे धीरे 

आगे, गाढ़े रंगों में,

रंगते से गए।

किशोर से आगे, हम

अपने वजूद में बढ़ते ही गए।


हवाओं ने रुख बदला,

तेज हुईं, 

उड़ा उड़ा के 

बहुत तेजी से पलट डाला,

कब कितने पन्ने

पलटे कुछ

पता ही न चला।


कुछ दिन बाद ही, 

जो पन्ने सिल्क से 

उड़ते भागे थे पीछे, 

उनके भीतर, एक

कुलबुलाहट सी हुई।

जब पलटा पन्ने तो,

उसके भीतर 

एक बिलकुल नई, छोटी, फ्रेश

बुकलेट से मुलाकात हुई।


सुंदर थी, प्रिय भी लगी।

पर जो किताब 

आगे पढ़नी थी,

वो फिर यहीं से 

अनजाने में

नहीं पता कैसे

दुबारा से शुरू हो गई।

पिछली जो बाकी थी 

वो तो वहीं रह गई।


अब इस बुकलेट ने 

धीरे धीरे किताब का ही रुप लिया।

एक दिन यूं ही मुझे अपनी

पुरानी किताब की याद आई।

फिर उसे खोला पलटा।

देखता हूं सारे किरदार बूढ़े हो गए, 

और सारे पेज भी ढीले हो गए।


अब इस किताब में

दिनों के पेज 

कठिनाई से खुलते हैं, 

हैं तो उतने ही पर

काफी लंबे लगते हैं।

देखने पे लगता था, अभी

काफी है, किताब बाकी,

पर वो अंदाज 

कुछ गलत निकला, 

आगे बढ़ते ही

पता चला, 

वो मोटाई 

पेजों की नहीं 

कवर के दफ्ती की थी।

किताब तो कभी की, 

खत्म हो चुकी थी। 

आगे वही शून्य था,

जो सबको समेट के 

हमेशा से ही

लपेटता रहा है अपने भीतर।


अचानक सुना, ये क्या

फोनो पे फोन हो रहे हैं।

अंदर कुछ लोग, 

कुछ सोचते से हैं, 

और कुछ सच में रो रहे हैं।

थोड़ी ही देर बाद,

कुछ लोग बाहर बैठकर 

मेरी उसी पढ़ी किताब के पन्नों की

हेड लाइंस बयां करते जा रहे थे।


आदमी ठीक था, 

अच्छा था, 

साथ ही साथ, कुछ लोग

और भी बहुत कुछ बकते जा रहे हैं।

किताब तो इतनी ही थी, 

पर देखने में बड़ी मोटी लगती थी।

देख के लगता था, 

अरे ये कैसे खत्म होगी।

पर होती ही है, 

यद्यपि कोई नहीं चाहता 

कि उसकी किताब जल्दी खत्म हो।


सच बात तो यही है, 

की किताब तो 

लिखी ही रहती है।

बस पन्ना पलटता जाता है। 

सब, खुद ब खुद घटता और होता जाता है, 

कोई कुछ नहीं करता है, 

जाने के बाद ही पता चलता है,

बस बेकार का ही अहम  होता है। 

इसलिए केवल अपने ही में मस्त रहो।

जय प्रकाश




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