अंशुमाली की किरण के साथ तुम,

कोई चितेरा रंग रहा था

कांच पर दुनियां तुम्हारी।


रंग सतरंगी लिए…. 

वो सोचता…. है,

‘एक ही व्यक्तित्व में..

जाने.. न कितनी.. राह हैं’,

"कौन… सा किरदार…तेरा 

वो उठाए…. रंग भरे…

आगे बढ़े।"

फिर सोचता है :-

आज जब तुम शाम को

उस.. पार्क में, 

खेलते बच्चों के संग संग,

बैठ कर चुपचाप, 

अपनी बेंच पर, 

"कुछ सोचते, बैठे हुए थे,

खोए हुए से !"

या फिर :-

खिल..खिलाते 

हंसते… हुए,

बाल शिशु को गोद.. में 

लेकर वहीं जब तुम थे खड़े,

"आज में जीते हुए से !"

अथवा :-

देखते 

उस कली को 

जो

'सुर्ख थी,'

डालती थी, एक छाया 

'लालिमा' सी तन पे तेरे।

"और तुम उमंगे हुए से

दीखते थे।"

या :-

लौटते, 

संग डूबते.., 

उस अंशुमाली 

की किरण के 

साथ, 

तुम चुपचाप.., 

खुद.. में आप 

ही, खोए  हुए से, 

इस धरा पर,

"अनमने बिसरे हुए से।"

या अंतिम :-

टहलते तुम

संग...उन

किलकते  

लघु पंछियों के  

"मस्तियों में कुछ देखते से"

या :-

प्रात में ही आज,

संग ....कुछ

बूढ़े हुए 

उन गंजुओं से

बात करते,

झगड़ते से।


आखिरी :-

सींचते, 

खिलते हुए, 

उस पुष्प को 

जिसमे नहीं 

मकरंद, कोई गंध,

अब बाकी बची है।

संग में उसके

"किसी की याद में डूबे हुए से।"

या :-

उन फागुनो के रंग 

जो किसी होलिका के संग, 

तेरे अनछुए तन मन 

के ऊपर छींट से 

बिखरे पड़े थे।

देखकर जिनको प्रथम तुम 

"हुलसते रंगो रंगे थे।"


कौन सा तुम चाहते हो

वो चितेरा 

रूप तेरा 

ले बनाए, 

तो बताओ आज ही 

तुम प्रात ही में।


गर चाहते हैं, 

मैं बताऊं

तो सुनें,….  आगे पढें।


क्मशः

जय प्रकाश

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