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Showing posts from February, 2024

खिलती हंसी फिसल पड़ती थी

आमंत्रण निजता तक था जो भी था, जैसा भी था, पर आमंत्रण निजता तक था। कौन बचेगा क्यों कर इनसे  आलिंगन सपनो सा था। (श्री राधाकृष्ण का स्वरूप आपको अपने में आत्मसात कर विस्मृत कर लेता है) हाय! निमंत्रण झर झर झरता,  नयन झुके जाते थे। पवन पकड़ जब डालें झुकता, फल टुपुक टुपुक गिर जाते थे। (श्री राधेकृष्ण विग्रह दर्शन से अपने भीतर प्रेम उपजाता है, अंतर में मिठास का पुट मिलता है ) अंगुलियां सुधि बुधि बन बुनती,  सपनों की सुंदर चादर। सुबह सबेरे चूं चूं करते उड़ते थे,  चिड़ियों के पर। (श्री श्यामा की सुंदर अंगुलियों में आनंद की अद्भुत अनुभूति मिलती है, और खुद को एक हल्कापन महसूस होता है) अरुणोदय की प्रथम किरण से स्वर्ण पुता जाता था, नन्ही कलियां विहंस मुरकतीं हृद-स्थल खुल जाता था, (प्रातः काल में किरणों से कली पुष्प बन खिलने लगती हैं, सूर्य किरणे मंदिरों को सुनहले रंग से रंग देती हैं) खिलती हंसी फिसल पड़ती थी, रस अधर मधुर टपकाते थे। स्वी..कृति मौन बनी प्रस्तुत थी,  हर अंग झुके जाते थे। (श्री राधे मुख सौंदर्य से मुस्कान छलक जाती थी होठों से अमृत टपकता है ) सलिल सरिस लय विलय उर्...

बाजार में काबलियत नहीं बिकती

बाजार में काबलियत नहीं बिकती  जो लोग जमीं पर, खुद ही, गिर पड़.. के, खड़े होते हैं। वे ही इस जमीं के होते.. हैं, खुद के पैरों से चल सकते हैं। पर वो लोग,  जो बिना गिरे ही, पैरों जमीं छुए ही…, चाहते है चलना,  चलना ही नहीं, भगना। पर, ये नहीं होगा! शुक्रे खुदा कहें या  ऊपर वाले की मर्जी, कहीं किसी भी बाजार में, काबलियत नहीं बिकती।  बाजार में अगर ये कहीं  बिकती भी होती, तो उन चमचमाते औंजारों  तक ही सीमित होती। काबिलियत हमेशा जेहनो-जेहन के साथ भद्रचलन से आती है, कोई एम एल सी का चुनाव नहीं, कहीं से भी बटोर ली जाती है। एक समय था की नेता लोगो की भलाई लिए बनता था। आज वो समय है, वो अपनी बुराई दबाने के लिए बनता है। लोक तंत्र में सिर गिने जाते हैं, कुछ समस्याएं तो थीं लेकिन,  राज्य सभा, विधान परिषद के लोग कुछ हट के चुने जाते थे, इन्हे वोट चतुर, सुजान, पढ़े लिखे लोग बड़े मनोयोग से करते थे। यह हृदय था लोकतंत्र का, सांसे जहां से वह लेता है, पर खेद है गिनती तंत्र का अंधेरा उसे भी निगल लेता है। जय प्रकाश

न चमक चाहिए, न भीड़, न उत्तेजना,

जो शिखर बन वह चमकता है, है दिख रहा, दूर.. से, आंखों को, आपको अपने भीतर तक...। वह पहले आप के जैसे.. ही लोगो के पैरों.. के  नीचे… था।  सच कहता हूं, सुनें.., वह जो हमें  दिखता है, राज मुकुट में भी.  सबसे… ऊपर, चमचमाता मुस्कुराता.. हीरा.., वह तो पहले पैरों की  जमीं के भी.. नीचे… था, उसे खोद कर.. ही निकाला गया, था जमीन से। इसलिए.. अपनी,  आज की  स्थिति से परेशान  मत हो, यह तो नियति  का नियम है, आप  सब्र रखें, बस  परिश्रम करें। ध्यान रहे  हाथों से, टटोलने वाले को, आंखों की जरूरत नहीं होती। आप आंखों के लिए चमकदार नहीं है कोई बात नहीं,अनुभवी हाथों के लिए  दानेदार तो हैं। भरोसा रखें, पहले खुदपर  फिर अपने ऊपर वाले पर,  सब ठीक होगा। हीरा, हीरा ही  रहेगा, जहां  भी रहे।  लोगों के बीच,  लोगों से दूर, बीहड़ों में  नीचे जमीं में, अंधकार में, प्रकाश में। क्योंकि उसे कुछ चाहिए नहीं  लौटा देता है, वह सबकुछ जो कुछ भी हम उस पर डालते है। उसे खुद के लिए  न चमक  चाहिए, न भीड़,  न उत्तेजना, क्य...

आनंद चूंअन लागा पवन के झकोरों से।

 वरद वर्षा नव तरु पल्लव सम डोलत मन संग संग, बरसत जब वारि बृंद  भीजत सब अंग अंग। चमकन नभ बिजुरी  चम चम चम लागी जब, डरपट हिय साथ लिए  फिरती हत भागी मैं। वर्षा जल टपटप टप चुअन लागी पातिन पर, उमग उमग उर खोलत पवन चंचल डालिन तर। कसमसाति हिलति डारि  झूमति समीर संग, झोंके हैं उघाड़ देत  डलियन के सुघड़ अंग। रस है बहन लागा भी…ग गया, अंतर-तर  बरखा पटाति नाहीं छमछमाति तरुअन पर। वरषत जल मधु समान, धवल हुईं पतियां सब  मन में उदासी भरी जाऊं केहि रहियाँ अब। नृत्य करत सारे तरु  ले ले मृदंग ढोलि  गूंजति शहनाई सी बरखा अबोलि बोलि। वारि झरत अमृत सम पल्लवन के कोनों से आनंद चूंअन लागा  पवन के झकोरों से। श्याम जू छिपन लागे बादलों के कोनों में राधा बन बूंद बरसीं भक्तन की गलियन में।            जय प्रकाश

एक कील थी चुभती हृदय में,

एक कील थी चुभती हृदय में, वह अकेला सोचता था,  कुछ करे, अस्तित्व पाए। धूल… जीवन न बने…,  फूल बनकर महक जाए। (एक आम सन्यासी भी बचपन से कुछ अलग होता है) सूरज ये कहता नित्य उससे जीवन क्षणों में जा.. रहा है, जो भी, है करना कर.. उसे  तूं इतना क्यों घबड़ा रहा है।  (नेचर ऐसे लोगो से सीधे वार्ता करती रहती है, मनोबल भी बढ़ाती है) बोलता… कुछ भी नही था,  सोचता…. दिनभर यही था, चलित, विचलित,हो रहा था आत्म-मंथन… कर रहा था। (गृह त्याग के पूर्व बाल सन्यासी के मन मस्तिष्क में कश्मकश चलती रहती है) कठिन था,  उस नेह को अवसान देना,  जन्म.. से, जो बांध. रखे, थे.. उसे। पर कहीं एक कील थी  चुभती हृदय में, तौलना संसार…,  जिस पर था उसे…। (घर बार को छोड़ना कठिन होता है, फिर भी संसार की बाल सन्यासी परमतृप्ति के तराजू पर तौलता है) समय ने करवट लिया,  आत्मनिर्णय.. हो गया,  बंधन सभी ढीले.. लगे,  संबंध सब गीले… लगे। (अंत में उसका विवेक जीतता है, सांसारिकता और उसका राग हार जाता है) एक निश्चय… हो गया,  मन मुठ्ठियों में बंध गया, एक धारा…. बह चली,  तट छोड...

गीतों से भर जाता था घर

गीतों से भर जाता था घर। दूर… बहुत, दूर…  मे…रा, भी…, एक  घर है कहीं। ऐ दोस्त! ये, रू…ह, आज भी  अकेले में  भटकती है वहीं। (अपने बचपन का गांव और घर जो काम धंधे में छूट गए सभी को प्रियतर होते हैं) आगाज़े जिंदगी,  मुहब्बते तरन्नुम  बसती थी वहां। लोग, वो लोग,  जो वहां थे, गर अब नहीं, तो मानो अब इस  जमीं पर हि नहीं। (हम सभी ने वहां जिंदगी का फलसफा सीखा, वहां सच्चा प्रेम बसता था। ईमान के पक्के, सच्चे लोग थे, गर गांव वासी बदला तो अच्छे लोग मानो दुनियां में नहीं रहे) उनके लिए  अपनी थी, आबरू-ए-इज्जत ‘सबकी’। अब तो बस, कुछ यादें ही  बची हैं तब की। (सब मिलजुल कर रहते थे, उनकी रहन अच्छी थी विस्मृत नहीं होती) घर तो अनेक थे,  पर एक थे, सुख दुख उनके। चाचा, काका, दादा, भैया कहते ही पिघलते उठते थे दिल उनके। (समरसता का समय था, करुणाशील लोग थे) मेहमान, किसी का भी हो वो सबका था। खेत खलिहान किसी का भी हो वो सबका था। (एक परिवार हो लोग रहते थे) मां बूढ़ी हो किसी की, किसी के बच्चे हों असहाय,  बैल बूढ़ा हो किसी का या किसी का पैर टूट जाय, ये विषय सबके थे,...

मेरे तो पंख घायल हैं।

मेरे तो पंख घायल हैं ऐ रस जरा धीमा बरस कोई भीग जाता है,  तेरे आंचल के रंगो-आब पर   कोई रीझ जाता है। कहूं क्या बात उनकी झर रहा  मधुमास अंग अंग से, वो हिलते हैं तो गिरतीं है नजर नापाक अंग अंग पे। नयन खुद ही परेशां हैं रुके तो किस पे वो ठहरे जो पत्थर पर भी वो ठहरे तो पत्थर सुर्ख होता है। छुओ मत पांव मेरा तुम नहीं मैं सख्स वो हूं अब उडा था जो कभी आकाश मेरे तो पंख घायल हैं।   क्रमशः आगे कल पढ़ें

नित नई नूतन लगें ये डालियां, ये पत्तियां,

प्रकृति की रस रंजना नित नई नूतन लगें ये डालियां, ये पत्तियां, री कुहुक, मैना ये तेरी काजल पुती सी बदरियां। उमंड़ती, रसभरी, सुंदर सावँरी, अनुपम, मनोहर, कजरियों का गीत गातीं  नूपुरों में पर लगातीं। सुरसराती, सुर उठातीं, सरस बन मन बिच समातीं, मुस्कुराकर फुसफुसातीं, गुदगुदा कर बुदबुदाती। जब धरा के पास आतीं,  नाच जाता मन धरा का, भींग जाता तन धरा का तृप्ति से वह पिघल जाती। था कठिन उसका हृदय पाषाण था उसमें समाया, बूंद पहली ने छुआ जब  मन ने उसके गीत गाया। पिघलता जब हृदय मेरा आ कोई तब चूम लेता, गर्म स्वांसों से भरा… कंपित अधर से हाथ मेरा। लालिमा थी जिन मुखों पर  कालिमा अब क्यों समाई, दिव्य जिनका रूप था  द्रव्य में वह क्यों समाई। मैं विलग कब सृष्टि से था मैं अलग कब दृष्टि से था, ईशान की लाली से हटकर कब मेरा अस्तित्व कुछ था। भीग जाता हूँ हृदय तक  लहर के उत्थान पर, टूटती जब धार इसकी मन की चंचल सेज पर। देखता हूँ, हश्र जब चंचल लहर के वेग का, सिमट जाता हूं स्वयं में व्यर्थ सारा खेल है। लहर जीवन की जब आई संग खुशियां थीं समाई आस कितनी थी लगाई, विहंस दुनियां थी बसाई। सोचता हू...
जब मैं खुद को जीतता हूं, खुश होता हूं , जब देखता हूं कोई, मैं.. आइना कहीं पर, खुद को ही देखता हूं, उन आईनो के भीतर। (अपने भीतर आप दुनियां में अपने आचरण और व्यवहार से कुछ अलग होते है ) पहचानता हूं उसको, जो गुम कभी हुआ था आइन में दिख रहा है, वो सर निकाले बाहर।  (जो आपमें मूल विशुद्धता थी वो प्रतिबिंबित हो दिखती है) पाकर मुझे अकेला, वो पास मेरे आया, नजरें मिलीं जो उससे, मैं थोड़ा सकपकाया। (दर्पण का प्रतिबिंब अकेले में अपने से अलग कोई लगता है उससे सामना थोड़ा घबराहट भरा होता है) मेरी हाल देखकर वो, आंखों में मुस्कुराया, नाचीज की हिकारत, मैं कभी न भूल पाया। (अपनी दुनियांदारी के हालात और आचरण से हम आत्म पीड़ित अनुभूत करते हैं) वो सच ही तो खड़ा था, पर और लग रहा था, मुझे बाजुओं में लेकर मुझ में ही घुस रहा था। (अपने मूल आत्मा के सामने हम अपने सांसारिक कामों के चलते बौने महसूस करते है, अपना सत्य और असत्य हमसे छुपा नहीं होता है) मैं चौंका! ये प्रतिबिंब है, आईने में, इससे क्या डरना हट जाऊं, सामने से तो  क्या कर लेगा आइना। झांकता खुद की आंखों में,  खुद के पास जाता हूं,  देखता एक...

प्रेम गीतों से भरा मेरे गांव का परिवेश था

प्रेम गीतों से भरा मेरे गांव का परिवेश था। एक छोटा घर मेरा था  दूर बस तुम सोच लो, क्षितिज के ही पास जानो मिलता जहां आकाश हो।  पवन बहती थी सुरीली, मधुमास आहट जोहता, किलकते पंछी मधुर थे, तन मन में सावन बरसता। वहां नदिया बह रही थी, “काल” से बेफ्रिक हो, शांत, शीतल, सहज, सुंदर अन-मनी, अनभिज्ञ हो। कोई जटाधारी वहां  कुछ काल से था रह रहा, “काल “ को नित बांधता और “काल” से कुछ मांगता। बांस के झुरमुट वहां प्रतिपल पवन संग झूमते, पर खड़ा मानुष वहीं खुद से लडाई लड़ रहा। खिल उठे थे फूल पीले  बालियां पोषित हुईं, बावला मानव दुखित दुश्वारियों में ही रहा। लालिमा के संग सूरज आसमां पर छा चुका। दूर थी अब रात काली फिर भी उसी से डर रहा। उगलती दिन रात सोना  ऐसी धरा चहुंओर थी, दिव्य हरियाली चतुर्दिक  चांदनी, चित चोर थी। शांत नीरव क्षेत्र था  परिमल बसा हर ओर था, प्रेम गीतों से भरा मेरे गांव का परिवेश था। एक छोटा घर मेरा था  दूर बस तुम सोच लो, क्षितिज के ही पास जानो मिलता जहां आकाश हो।  पवन बहती थी सुरीली, मधुमास आहट जोहता, किलकते पंछी मधुर थे, तन मन में सावन बरसता। व...

तुम मिल सको तो मिल हि लो।

तुम मिल सको तो मिल हि लो। बूंद बन, बहता रहा वो आज सारी रात भर, रिसती रही थी, जिंदगी  आंखों से उसके रात भर। एक सरिता उमड़ती मूक ही कुछ कह रही, बोलती कुछ भी नहीं  चुपचाप! क्या वह बह रही? तरलता की सेज पर पल छिन, सिमटती रेत पर, अनगिनत सतरें, मेट कर,  कुछ लिख रही, बस लिख रही।  शब्द भाषा के नहीं हैं हृदय पट पर बिंध रहे हैं, दृष्टि में धुंधली चमक है, पर सिंजिनी... पैरों में है। नच रहा है काल सम्मुख  डूबता कल जा रहा। मौन हैं, खाली हैं आंखें  सपनों में कोई... छा रहा।   बीते खयालों की कशिश में डूब.... जाने के लिए....., तरल बन, खुद जिस्म में बहती रही, वह रात भर। झड़ गई थीं पत्तियां....  जो उर मिलाती थीं कभी,  थे कहां वो फूल खिल जो  महक.... जाते थे कभी...। सूखती ये डालियां  तिनकों में, सिमटी पत्तियां, कह रही हैं  हाय! प्रिय  तुम मिल सको तो मिल ही.. लो। जय प्रकाश

विकल अधर कह सकते यदि हृदयों की भाषाएं,

  मैं और मेरा दर्पण  उत्कंठित मन लहर बनाता,  सपनों के नीले दर्पन, आकुल तन भंवर सजोता,  स्वप्निल तंद्रा कर अर्पन। विकल अधर कह सकते  यदि हृदयों की भाषाएं, फिर आंखें क्यूं भर आतीं,  क्यूं अधर प्रकम्पित होते। पर्दों के पकड़ किनारे  क्यों नयन बावंरे झुकते,  क्यों धरा कुरेदी जाती  पावों के अंगूठों से। ठंडक की कतरन लेकर  क्यों गाल गुलाबी होते, क्यों अंगारे से तपते  हिम छादित पर्वत अंतर। विवश हुआ मैं जाता  पग पग पर सब कुछ देकर।  क्यों पग मेरे खिंच जाते  स्मृतियां तेरी भरकर। जब मिलन अधर बन जाते  शब्दों के सुंदर अक्षर, उनकी मिठास घुल जाती  मेरे कानों में अंदर। स्पर्श मुझे दे जाते,  उर के भीतर अंतर तक। मैं मूक देखता रहता  सरिता की बहती कल कल। जय प्रकाश

बच्चों से खाली हो रही है जिंदगी तो आज।

कहानी दरिया-ए-जिंदगी  छनती रही थी जिंदगी  रिश्तों के बीच रोज, बाकी बची है जिंदगी  रिश्तों के बीच आज। (अपनो को छोड़ पराए में खुशियां ढूंढते रहते थे आखिर अब अपने ही साथ बचे) जाने कहां गई वो फिजां,  जो बदलती थी रोज। जो कारवां गुजरा था तब वो धूल उड़ रही है आज। (रोज नए अफसाने उत्सव था शानदार जिंदगी थी, आज उनकी यादें ही बचीं हैं) खुश होने को तो दीखते हैं  नन्हें नन्हें पेट, (पालतू जानवर) खूब पा रहे हैं आबो अदब  नवदंपतियों में आज। (पालतू, बिल्ली, खरगोश, पप्पी आदि अद्भुत प्रेम से नए जोड़े पालते हैं) उछलते हैं, कूदते हैं,  मन मोहते हैं सच।  पर बच्चों से खाली हो रही  है जिंदगी तो आज।  (आज परिवारों में बच्चों की जगह पालतू पेट्स ले रहे हैं छोटे बच्चेकम होते जा रहे) अपनी कमेंट अवश्य दें। जय प्रकाश

उम्र हिरन बन गुजर गई

आज की अपनी ताजा लिखी एक कविता भेज रहा हूं, आप पढ़े, और अच्छी लगे तो नीचे कमेंट में अपनी राय दें। आपको अपना समझ के  ही भेजा है। शीर्षक है: उम्र हिरन बन गुजर गई उम्र दिखती..... है, गुजरती है जब लोगों... पे, शुक्र-ए खुदा!  जो अपना चेहरा, बर-वक्त नहीं दिखता।   (हर समय) अपनी उम्र का अंदाजा खुद को देखकर नहीं अपने समौरियों, साथियों को देखकर पता चलता है। ये तो अच्छा है की हरदम अपना चेहरा खुद को नहीं दिखता नहीं तो उदासी छा जाय। न मिलें लोग,  तो अपना भी पता कैसे चले, इस मुहाने से अब तलक  कितना पानी गुजरा।  देखा उनको तो,  तबियत थोड़ी नम सी हुई। महक जाते है वो आम,  जो टपकने को हैं। पीलापन बाहर मीठापन भीतर  कैसे आता है, शायद ये उम्र ही राज है, इन सभी के लिए। अपने मित्रों के हालत और बदलते स्वरूप को देखकर थोड़ा उदासी तो होती ही है की अब उतार पर हम भी आ गए। उनकी बातो में सद्भाव और नम्रता आ जाती है जो पहले झगड़ालू थे। उम्र पका के घुलघुला कर देती है। झुकती जाती है,  डाली खुद से, जब उन पर नए बौर आते हैं, और झुक जाती हैं जब  कैरियां गदराई, फूलीं,...

गीत होगा मीत का, तो छू ही लेगा,

कल्पना लोक में अतीत गीत होगा मीत का, तो छू ही लेगा,  उर तुम्हारा। हृदय में मिल सांस में घुलता हुआ फिर, बज उठेगा साज सा अंतर में तेरे। याद में तुझको लिए  नर्तन करेगा  मन के  आंगन। भीग जाओगे,  वहां तक, छोड़ आए थे जहां पर। बह उठेगी धार रस की, कुनमुनाती। पास आती  हाय प्रिय के पास का अहसास पा तुम खिल उठोगे। मन बना पावन  पवन सा झूमता  तेरे अंग,  झुरझुर  बह उठेगा, तैरकर तुम  बह चलोगे। समय की  नदिया में  बह कर डूब कर फिर तिर सकोगे। दूर तक पीछा करेंगी साथ मिलकर ही चलेंगी वे घटाएं, घुमड़ कर जो बरसतीं  ले साथ में शीतल हवाएं। सावनी यादों के साए, घेर लेंगे, फिर तुम्हे एक बार, मेरे गीत में डूबे  अगर तुम यार।

पाईं बेगमे, गमगीन…, नाम में, क्या है,

एक हो जाएंगे पराए अपने खोल कर देख तो  दरवाजा अपने  बंद कमरे का, हवा ताज़ी है,  मौसम, खुशनुमा  बाहर है कितना। गुनगुनी धूप है,  कलियां खिली हैं  पेड़ो ऊपर, चुलबुली चिड़िया बैठी है एक तेरे अंदर। कमरा हो या  दिमाग बिल्कुल  बंद नहीं होता, जागने वाला  कभी कुछ भी  कहीं नहीं खोता। दरवाजे, खिड़कियां  रोशनदान, दीवार, मान्यताएं, संस्कृतियां,  चलन, विचार।   आपस में जुड़ते हैं,  संजोने के लिए, पाने के लिए,  न की,  खोने के लिए। जो हों बेहतरीन,  पर बिखरे बिखरे, कदर कर उनकी, जो अभी नहीं निखरे। पाईं बेगमे, गमगीन…,  नाम में, क्या है, इरादा नेक हो  तो देख,   नेकी में क्या है। समा जाएगी,  इतनी बड़ी दुनियां,  तुझमें,  देखते ही देखते,  इतना ही नहीं एक हो जाएंगे,  सारे.. पराए, अपने। जय प्रकाश

वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा)

  वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) खिलने लगे गुलाब क्यारी में,  खेतो में राई मुसकाई।  ओढ़े रंग बिरंगी चादर, प्रकृति की देवी इतराई।  मुकुलित तन प्रमुदित मन लेकर,  सुंदर सुखद हवाएं आईं। खुश हैं सारे खेत बाग, बन मन में सुखद उमंगे छाईं। नाचे मन मयूर खेतों संग ऐसी हरियाली छायी। सरस हुआ तन, सरस हुआ मन  सरस हुआ वन, घर आंगन धानी चूनर पहन पहन कर आज हुई है प्रकृति मगन मन। दिन शुभारंभ का, ज्ञान बुद्धि का सताकर्मों के फल देने का, देवी सरस्वती आईं। पूजन करो,  पीत पुष्प अर्पण करो,  पीले वस्त्र धारण करो, मां वाणी को नमन करो, प्रसन्नता धारण करो, ऊर्जित तन ऊर्जित मन जग में प्रवेश करो।

तुम खिलो हे अखिल के सच

हे अभीप्सित जलद पावन छा मेरे तूं आंगना, हे मृदुल तन श्याम शीतल आ मेरे तूं आंगना। रस सरस अंतर भरा, बरसा मेरे तूं आंगना, बन मयूरी नाच जाऊं, कर कुछ ऐसा साजना। तुम खिलो हे अखिल के सच आज मेरे आंगना। प्राण का आधार बनकर खिल उठो मेरे आंगना।

तेरे लिए उसने लगाए साल कितने,

तेरे लिए उसने लगाए साल कितने, मत मसोसो मन को ऐसे खुश रहो, क्या धरा है इस धरा पर खुश रहो।  बात बस, कुछ दिन बिताने की तो है, कल्पनाओ में फिरो, पर खुश रहो।  (जिंदगी में आनंद महसूस करने की एक जगह है दुखी न रहो) खिंच उठेगी एक रेखा,  शुरू तो कर। जिंदगी खुद रंग लेगी, बैठ तो तूं रंग लेकर। देखना तुम, रंग जैसे भी तेरे हों, साथ में सब लोग जैसे भी तेरे हों।  डर नहीं, निर्भय चला चल। राह में, पीता हलाहल।  (आर्थिक सामाजिक स्थिति से न डर, राह में परेशानियां होंगी, मन ऊंचा रख) ध्यान रखना! कैनवस का रंग  तेरे साफ हो!  छोटा बड़ा कुछ भी हो पर सिकुड़न, सड़न से मुक्त हो! जिससे! बने जो दृश्य इसपर  वह सदा संपूर्ण हो। ( हृदय निर्मल और विश्वास पक्का हो जिससे जीवन अपनी संपूर्णता पाए) तेरा चितेरा गुन रहा था,   कूचियों रंग भर रहा था। रंग चुनता, छोड़ता था, सारंग बना, वह घूमता था। तेरे लिए उसने लगाए साल कितने, तूं क्या जाने घूम आया द्वीप कितने। खोजता तेरे लिए परिवेश जग में,  विथियों, पगडंडियों के डांड उसने। झांकता उर मध्य, मन के आंगना, तब दिया है जन्म तुझको उसने य...

अभय वन वासी को, भय विनाशी को

अभय वन वासी को, भय विनाशी को। कुछ ‘थान’ होते हैं, देखने में स्थानो ही जैसे , गऊ थन से आह्लादक, स्वादिष्ट, पोषण भरे। कामनाएं बौनी हो, झुकती यहां हैं पूर्ण होकर, शीश झुकते हैं, खुशी से पावों में नीचे उनके।  बना, न बना हो, कुछ भी यहां, पूर्ण मनोरथा ही रहती हैं, विशिष्टता जो भी हो इनकी, लोक में सदा जिंदा रहती हैं। हम अपने, अपनों और अपने लोगों तक सीमित रहते हैं, ज्यादा से ज्यादा प्रतिष्ठा और रूप को हर ओर रंग...ते हैं। इनका इनका जीवन हमारे आदर्शों से बहुत ऊपर था, मित्र तो मित्र था, शत्रु भी मित्र से कम प्रिय नहीं था। सबके लिए पहले सोचते, तब अगला कदम रखते थे, हां! वे बस सच्ची मानवता मात्र के लिए ही लड़ते थे। श्री अयोध्याजी और उनके पालक शुरू से विशिष्ट रहे हैं, हमारी सामान्य दुनियां और उसकी सोच से ऊपर रहे हैं। इस जन्म स्थान ने प्राण दिया है रक्षा की है, संपूर्ण पृथ्वी पर, मनुष्यता की, त्राण दिया है मनुष्य को, जीवन प्रकृति को, अभय वन वासी को, भय विनाशी को। बोलो श्री राम जन्म भूमि की जय।

कहीं ये गीत तुझको छू न जाएं

कहीं ये गीत,  तुझको  छू न जाएं, नहीं तो  उड़ चलोगे  तुम मेरे ही साथ, मिलकर बादलों के पास।  कल्पना और भाव का देश रमणीक, रंगीला होता है, लेकिन वहां का आनंद किसी के संग मिलता है। जिसमे एक मछली मछलियों से पूछती है। हम धरा से दूर हैं क्यों! इस गगन में मुक्त हैं क्यों! बादलों में पा बसेरा घूमते हैं, विश्व के परिधान बन हम झूमते हैं। कल्पना और कवि का क्षेत्र निष्पाप, दुनियावी आडंबरों से दूर मुक्त होता है। व्यक्ति आनंद सागर में गोते लगाता है, मछली सा चंचल, सुंदर, रंग बिरंगे दुनिया में विचरण करता है। जाने न कितने देश अबतक घूम आए, पर नहीं शिशु से अभी हम आगे आए। इस धरा की मलीनता जो बह रही चुपचाप नीचे, आज तक उससे रहे है हम सभी बस आंख मींचे। इस लिए हम समय की उस पेंच से हैं दूर, जो हमेशा स्वार्थ अरु सारे अहम से पूर। पर जहां ये मेघ अपने हो खड़े  आंखों के बंधन बंध पड़ेंगे। सार अपना दानकर, हो अहम में चूर्ण निर्जल हो चुकेंगे। हम धरा पर जा पड़ेंगे,  हाथ में किसी बालिका के जो लिए एक थाल, पूजा पुष्प से साभार मुकुलित हृदय से अभिभूत  आंखों में लिए जल पूत मंदिर से थोड़ी ह...

क्या है तेरी राह सर्वरी? कुछ तो बोलो

 मानवता की सरिता अनजाने इन कठिन तटों से, ठोकर खाकर अविकल अविचल, नदी बनी तुम बहती अविरल, क्या मिलता है तुम्हें सर्वरी? कुछ तो बोलो! टकराकर, गर्जनस्वर करती, फेन फेन शीतल जल करती, शैल शिलाओं संग तू लड़ती, अपनी धाराओं में उलझी होगा क्या अंजाम सर्वरी? कुछ तो बोलो! पहन तरंगों की चादर तू, विपिन, बीहड़ों में है फिरती, सुंदर भव्य किनारे कितने, तेरे दाएं बाएं खिलते, बची है कितनी चाह सर्वरी? कुछ तो बोलो! अब तू मत ले रूप भयानक, तोड़ न अपनी मर्यादा पथ, जाने कितने बह जाएंगे, जाने कितने मिट जाएंगे, लेते तेरे एक ही करवट, क्या है तेरी राह सर्वरी? कुछ तो बोलो!

जीवन निशीथ

जीवन निशीथ शांति यहां है,  नहीं कशमकश,  सब कुछ सरल सरल है, जीवन कितना  स्निग्ध, विमल है,  सब कुछ तरल तरल है। सुखद बयार,  भावना बहती  तरु पल्लव के उर में, उपरत मन  भटकाव मुक्त है,  मुक्त सभी भटकन से। विषय विकार  स्वयं नत रहकर,  आतुरता धुलते हैं, श्रम सीकर  अब अर्थहीन हैं,  प्रभु संग संग बसते हैं।  जीवन मंत्र  कर्म था जग में,  कर्म भेद अब जाना, शून्य हृदय,  मन शून्य,  शून्य कर  अन्तस है ये पाया। कर्म शून्य थे,  शून्य प्राप्तियां,  मन की गति फेनिल थी, अंधी दौड़  मैं दौड़ा जग में,  दौड़ मेरी मुझ तक थी।  आज पहुंच पाया हूं  खुद तक,  वर्ष लगे हैं कितने, पथ की  कितनी कठिन परीक्षा  होती है इस जग में। जीवन का गंतव्य  शांति है,  मर्म हाय अब पाया, इच्छाएं केवल ईंधन थीं  ज्ञान हाय अब आया। कर्तव्यों की  बलि चढ़ देखा,  कुछ भी नहीं वहां था, मुक्त हृदय ही  सब कुछ था,  सारा आनंद यहां था।

देख निशान गर्व.... करते थे।

  हम भारत के लोग दुखी हैं अलग अलग है धरती सबकी, कहने को.... सब एक। अलग अलग छल कपट हैं सबके, कहने को सब नेक। पढ़े लिखे, संभ्रांत, चुनिंदा,  जिनसे थी मानवता जिंदा। वक्ता, शिक्षक, हीरो, नेता, व्यापारी, पंडित औ मुल्ला। बाहर से भीतर तक सारे सड़े हुए हैं कितने... देख। जिनके नाम के आगे आगे, छपे हुए थे सिंह बिचारे...। उनके घर जब रेड हुई तो, भागे नहीं वो फिर भी देख। चार शेर चहूं ओर किए मुंह, भारत के इज्जत की खातिर। खड़े रहे बिन हिले रात दिन, उनकी दुखती.. रग तो देख। अपने पोजीशन.. को लेकर, चारो हैं शर्मिंदा...... भीतर। जिस पर हम बालक रिझते थे, देख निशान गर्व.... करते थे। जिसमे सत्यमेव ....पढ़ते थे। क्या गति इन सबने की आज। शर्म.. नहीं, नहिं इनको लाज। देश इन्हीं का राज.. इन्हीं का, देखो इनका जंगल ....राज। व्यक्ति व्यक्त होता जो हममें, सुंदर सरल सत्य अनुशासित हाय कहां हो गया लुप्त वह प्रेम,दया, करुणा अनुप्राणित। हे पदधारक, पूज्य, नियंता, कुछ तो करो देश की चिंता। जो निशान.... तुमने हैं धारे, मत कर उनकी, खुद ही निंदा। तुम्हें देख अब कष्ट है मन में, हो समर्थ, पर छल है मन में। भारत के जन दुखी आ...

अंधेरा अलग कहां मुझसे, तिरस्कार में ही जीने दे।

  सर्वहारा की तमस छेड़ मत तमस . रहने दे, जीते जी सुलगने…. दे। अंधेरा अलग कहां मुझसे,  तिरस्कार में ही...जीने दे। विकृति ही स्थिती मेरी, तनहाई ही नियति मेरी। बादलों के साथ उडूं तो, मत छूना.. परछाईं मेरी। शीत घाम नहीं मेरे लिए, काम बोझ कब मेरे लिए। सुबह कालिमा से शुरू,  शाम कालिमा में मिलूं। जीवन मैं भी… जीता हूं, पैदा होकर ही मरता.. हूं। जानोगे तुम मुझको नहीं, (क्योंकि) तुम्हारी गिनती में, मैं नहीं। उजाला होता है सुना हूं , मुंह अंधेरे रोज ही उठा हूं। सूरज से दूर एक गंदी कोठरी, काम में गई हर शाम, ससुरी। ये अंधेरी गली, संकरा रस्ता, घुप सीलन भरा मेरा कमरा। काम से आते घर में घुसते ही.... अभाव भूख बीमारी बोली, (बीमार पत्नी) देर कर दी.. बच्ची सो. ग्गई। मुंह हाथ धोकर, खा ले कुछ.. खांसी रूक्ना रही, ला दे कुछ। सोचता धीमे चला थकान सी थी, आगे एक चुलबुली दुकान सी थी। मुझ जैसे ही भीड़ लगाए थे वहां, अंधेरे में खुद को छिपाए थे वहां। सोचा एक झोंका.. हवा का पाता, दुनिया से दूर, खुद में जी …पाता। नहीं गया उधर, दवा की ओर मुड़ा, मन मारे, दवा ली घर की ओर उड़ा। नहीं थे पंछी उड़ गईं, दोनों...

चाहे जहां खिलो फूल से

  मातृ भूमि   भूल गए हम मिट्टी से ही निकला पुष्प सलोना, स्वच्छ धवल जितना भी हो पर मिट्टी का है छौना। रूप रंग आकार स्निग्धता कैसी इसकी आभा, भर सुगंध हिलता समीर संग सबका मन है बांधा। दिखता कितना अलग थलग है यह अपनी मिट्टी से, दूर खड़ा हो डाल शिखर पर इठलाता मस्ती से। पा कलियन का संग बिहंसता अपनी ही दुनियां में, पर मां बन कर जीवन देती मिट्टी ही बगिया में। हे जन भारत भूल न जाना अपनी मां धरती है, चाहे जहां खिलो फूल से महको, पर मां भारती ही है। जय प्रकाश ।