अंधेरा अलग कहां मुझसे, तिरस्कार में ही जीने दे।
सर्वहारा की तमस
छेड़ मत तमस . रहने दे,
जीते जी सुलगने…. दे।
अंधेरा अलग कहां मुझसे,
तिरस्कार में ही...जीने दे।
विकृति ही स्थिती मेरी,
तनहाई ही नियति मेरी।
बादलों के साथ उडूं तो,
मत छूना.. परछाईं मेरी।
शीत घाम नहीं मेरे लिए,
काम बोझ कब मेरे लिए।
सुबह कालिमा से शुरू,
शाम कालिमा में मिलूं।
जीवन मैं भी… जीता हूं,
पैदा होकर ही मरता.. हूं।
जानोगे तुम मुझको नहीं, (क्योंकि)
तुम्हारी गिनती में, मैं नहीं।
उजाला होता है सुना हूं ,
मुंह अंधेरे रोज ही उठा हूं।
सूरज से दूर एक गंदी कोठरी,
काम में गई हर शाम, ससुरी।
ये अंधेरी गली, संकरा रस्ता,
घुप सीलन भरा मेरा कमरा।
काम से आते घर में घुसते ही....
अभाव भूख बीमारी बोली, (बीमार पत्नी)
देर कर दी.. बच्ची सो. ग्गई।
मुंह हाथ धोकर, खा ले कुछ..
खांसी रूक्ना रही, ला दे कुछ।
सोचता धीमे चला थकान सी थी,
आगे एक चुलबुली दुकान सी थी।
मुझ जैसे ही भीड़ लगाए थे वहां,
अंधेरे में खुद को छिपाए थे वहां।
सोचा एक झोंका.. हवा का पाता,
दुनिया से दूर, खुद में जी …पाता।
नहीं गया उधर, दवा की ओर मुड़ा,
मन मारे, दवा ली घर की ओर उड़ा।
नहीं थे पंछी उड़ गईं, दोनों चिड़ियां,(पत्नी और बेटी नहीं रहीं)
हां भूख, बीमारी ही थी मेरी दुनियां।
कुछ ज्यादा नहीं सुना तुमने,
ये रोज रोज के किस्से हैं यहां।
सुबह से शाम, शाम से सुबह,
एक कठिन सच कहता हूं, हां।
चढ़ते चढ़ते न खत्म होने वाली,
ये सीढियां थक गया हूं मैं अब।
देख देख कर अपनों की गति,
समझो मैं भी, मर गया हूं अब।
ये चहकती चमकती दुनियां,
तुम्हारे पास और ...और भी,
कल्पना के सुंदर गलीचे होंगे।
हम सर्वहारा सफाई करते
बर्तन धुलते, कुत्ते घुमाते,
कब तुम्हारे घर के हिस्से होंगे।
सोचो घरेलू पालतू जानवर के
खर्च से कितना कम वेतन मेरा,
हां हम घास तो खा नहीं सकते।
यह सच है, पर ये भी सच है कि
तुम लोग भी मनुष्य नहीं हो सकते।
क्योंकि मनुष्यता धूमिल होती है
तुम्हारी करतूतों से, पंगु होती है।
इसीलिए तुम लोग केवल और केवल
मात्र ईश्वर ही हो सकते हो हमारे।
वह भी ऐसे ही निष्ठुर है संग हमारे।
जय प्रकाश
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