देख निशान गर्व.... करते थे।

 हम भारत के लोग दुखी हैं

अलग अलग है धरती सबकी, कहने को.... सब एक।

अलग अलग छल कपट हैं सबके, कहने को सब नेक।


पढ़े लिखे, संभ्रांत, चुनिंदा, 

जिनसे थी मानवता जिंदा।

वक्ता, शिक्षक, हीरो, नेता,

व्यापारी, पंडित औ मुल्ला।

बाहर से भीतर तक सारे

सड़े हुए हैं कितने... देख।


जिनके नाम के आगे आगे,

छपे हुए थे सिंह बिचारे...।

उनके घर जब रेड हुई तो,

भागे नहीं वो फिर भी देख।


चार शेर चहूं ओर किए मुंह,

भारत के इज्जत की खातिर।

खड़े रहे बिन हिले रात दिन,

उनकी दुखती.. रग तो देख।


अपने पोजीशन.. को लेकर,

चारो हैं शर्मिंदा...... भीतर।

जिस पर हम बालक रिझते थे,

देख निशान गर्व.... करते थे।

जिसमे सत्यमेव ....पढ़ते थे।

क्या गति इन सबने की आज।

शर्म.. नहीं, नहिं इनको लाज।

देश इन्हीं का राज.. इन्हीं का,

देखो इनका जंगल ....राज।


व्यक्ति व्यक्त होता जो हममें,

सुंदर सरल सत्य अनुशासित

हाय कहां हो गया लुप्त वह

प्रेम,दया, करुणा अनुप्राणित।


हे पदधारक, पूज्य, नियंता,

कुछ तो करो देश की चिंता।

जो निशान.... तुमने हैं धारे,

मत कर उनकी, खुद ही निंदा।


तुम्हें देख अब कष्ट है मन में,

हो समर्थ, पर छल है मन में।

भारत के जन दुखी आज हैं।

शर्मिंदा अशोक.......लाट है।

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