बाजार में काबलियत नहीं बिकती
बाजार में काबलियत नहीं बिकती
जो लोग जमीं पर, खुद ही,
गिर पड़.. के, खड़े होते हैं।
वे ही इस जमीं के होते.. हैं,
खुद के पैरों से चल सकते हैं।
पर वो लोग,
जो बिना गिरे ही,
पैरों जमीं छुए ही…,
चाहते है चलना,
चलना ही नहीं, भगना।
पर,
ये नहीं होगा!
शुक्रे खुदा कहें या
ऊपर वाले की मर्जी,
कहीं किसी भी बाजार में,
काबलियत नहीं बिकती।
बाजार में अगर ये कहीं
बिकती भी होती,
तो उन चमचमाते औंजारों
तक ही सीमित होती।
काबिलियत हमेशा जेहनो-जेहन के साथ भद्रचलन से आती है,
कोई एम एल सी का चुनाव नहीं, कहीं से भी बटोर ली जाती है।
एक समय था की नेता लोगो की भलाई लिए बनता था।
आज वो समय है, वो अपनी बुराई दबाने के लिए बनता है।
लोक तंत्र में सिर गिने जाते हैं, कुछ समस्याएं तो थीं लेकिन,
राज्य सभा, विधान परिषद के लोग कुछ हट के चुने जाते थे,
इन्हे वोट चतुर, सुजान, पढ़े लिखे लोग बड़े मनोयोग से करते थे।
यह हृदय था लोकतंत्र का, सांसे जहां से वह लेता है,
पर खेद है गिनती तंत्र का अंधेरा उसे भी निगल लेता है।
जय प्रकाश
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