जब मैं खुद को जीतता हूं, खुश होता हूं,
जब देखता हूं कोई, मैं.. आइना कहीं पर,
खुद को ही देखता हूं, उन आईनो के भीतर।
(अपने भीतर आप दुनियां में अपने आचरण और व्यवहार से कुछ अलग होते है )
पहचानता हूं उसको, जो गुम कभी हुआ था
आइन में दिख रहा है, वो सर निकाले बाहर।
(जो आपमें मूल विशुद्धता थी वो प्रतिबिंबित हो दिखती है)
पाकर मुझे अकेला, वो पास मेरे आया,
नजरें मिलीं जो उससे, मैं थोड़ा सकपकाया।
(दर्पण का प्रतिबिंब अकेले में अपने से अलग कोई लगता है उससे सामना थोड़ा घबराहट भरा होता है)
मेरी हाल देखकर वो, आंखों में मुस्कुराया,
नाचीज की हिकारत, मैं कभी न भूल पाया।
(अपनी दुनियांदारी के हालात और आचरण से हम आत्म पीड़ित अनुभूत करते हैं)
वो सच ही तो खड़ा था, पर और लग रहा था,
मुझे बाजुओं में लेकर मुझ में ही घुस रहा था।
(अपने मूल आत्मा के सामने हम अपने सांसारिक कामों के चलते बौने महसूस करते है, अपना सत्य और असत्य हमसे छुपा नहीं होता है)
मैं चौंका! ये प्रतिबिंब है,
आईने में, इससे क्या डरना
हट जाऊं, सामने से तो
क्या कर लेगा आइना।
झांकता खुद की आंखों में,
खुद के पास जाता हूं,
देखता एकटक मैं खुद को
खुद ही, खुद में, मुस्कुराता हूं।
(अपने से अपने को सत्य के झरने के नीचे नग्नता में देखने से उससे भागने का मन करता है, स्वयं को अपने गलतियों के साथ देखना हास्यास्पद ही नहीं कष्टसाध्य भी होता है)
सच कहूं मुझे अंदर से, बहुत अंदर से,
भीतर तक, मेरा मैं मुझे आंक रहा था,
इतना ही नहीं मुझे तो लगता है की
शायद, मेरा ‘मैं’ मुझे पहचान रहा था।
(अपने को अंदर तक, मन में दबाई और छुपाई गई बातो को कोई और जाने तो डर, लज्जा लगती है)
थोड़ा डरता, सोचता हूं, बहुत भीतर से
क्या वो मेरा सारा छुपा सच जान गया।
दुनियां से बाहर जो मेरी असलियत थी
उन सबकी यह दरों दीवार लांघ गया।
(अपने गुप्त विचारों और छिपाए गए कामों का भय)
मेरे भीतर, मेरे सिवा कौन है बैठा तनकर,
क्यूं आदमी का आइना होता नही है भीतर।
जब चाहे तब अपने सच का दीदार कर ले,
दुनियां में मस्त फिरे, आदतों में सुधार कर ले।
(एक कल्पना की हम अवांछित कामों विचारों को उसी समय रोक पाते और पश्चाताप से बच जाते)
आईना अपने भीतर का हो या बाहर का,
सिवा सच के कुछ भी कभी नहीं बोलता।
सच और आईने की भाषा मौन होती है
मौन की आवाज भीतर से चोट करती है।
मौन को बहरे,अनपढ़, गंवार सब सुनते हैं
ये शब्द नहीं, शब्दों से बहुत ऊपर होते हैं।
(नैसर्गिकता सर्वव्याप्त सर्वमय होती है, प्रेम, करुणा, दया, मैत्री को भाषा और देश में नहीं बांध सकते)
मौन और सच दोनों तराजू में नहीं तुलते,
ये कभी किसी वाशिंग मशीन में नहीं धुलते।
ये तो मर्यादाओं की सीमा के अंतिम पत्थर हैं,
दुख! आज मानव इसे ही उखाड़ने में तत्पर हैं।
(मनुष्य का दुर्भाग्य वह सब कुछ विजित करने पर तुला है पर कुछ को जीतना कठिन नहीं असंभव भी है)
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