विकल अधर कह सकते यदि हृदयों की भाषाएं,
मैं और मेरा दर्पण
उत्कंठित मन लहर बनाता,
सपनों के नीले दर्पन,
आकुल तन भंवर सजोता,
स्वप्निल तंद्रा कर अर्पन।
विकल अधर कह सकते
यदि हृदयों की भाषाएं,
फिर आंखें क्यूं भर आतीं,
क्यूं अधर प्रकम्पित होते।
पर्दों के पकड़ किनारे
क्यों नयन बावंरे झुकते,
क्यों धरा कुरेदी जाती
पावों के अंगूठों से।
ठंडक की कतरन लेकर
क्यों गाल गुलाबी होते,
क्यों अंगारे से तपते
हिम छादित पर्वत अंतर।
विवश हुआ मैं जाता
पग पग पर सब कुछ देकर।
क्यों पग मेरे खिंच जाते
स्मृतियां तेरी भरकर।
जब मिलन अधर बन जाते
शब्दों के सुंदर अक्षर,
उनकी मिठास घुल जाती
मेरे कानों में अंदर।
स्पर्श मुझे दे जाते,
उर के भीतर अंतर तक।
मैं मूक देखता रहता
सरिता की बहती कल कल।
जय प्रकाश
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