नित नई नूतन लगें ये डालियां, ये पत्तियां,
प्रकृति की रस रंजना
नित नई नूतन लगें
ये डालियां, ये पत्तियां,
री कुहुक, मैना ये तेरी
काजल पुती सी बदरियां।
उमंड़ती, रसभरी, सुंदर
सावँरी, अनुपम, मनोहर,
कजरियों का गीत गातीं
नूपुरों में पर लगातीं।
सुरसराती, सुर उठातीं,
सरस बन मन बिच समातीं,
मुस्कुराकर फुसफुसातीं,
गुदगुदा कर बुदबुदाती।
जब धरा के पास आतीं,
नाच जाता मन धरा का,
भींग जाता तन धरा का
तृप्ति से वह पिघल जाती।
था कठिन उसका हृदय
पाषाण था उसमें समाया,
बूंद पहली ने छुआ जब
मन ने उसके गीत गाया।
पिघलता जब हृदय मेरा
आ कोई तब चूम लेता,
गर्म स्वांसों से भरा…
कंपित अधर से हाथ मेरा।
लालिमा थी जिन मुखों पर
कालिमा अब क्यों समाई,
दिव्य जिनका रूप था
द्रव्य में वह क्यों समाई।
मैं विलग कब सृष्टि से था
मैं अलग कब दृष्टि से था,
ईशान की लाली से हटकर
कब मेरा अस्तित्व कुछ था।
भीग जाता हूँ हृदय तक
लहर के उत्थान पर,
टूटती जब धार इसकी
मन की चंचल सेज पर।
देखता हूँ, हश्र जब
चंचल लहर के वेग का,
सिमट जाता हूं स्वयं में
व्यर्थ सारा खेल है।
लहर जीवन की जब आई
संग खुशियां थीं समाई
आस कितनी थी लगाई,
विहंस दुनियां थी बसाई।
सोचता हूं आज,
पंहुचा हूं जब अपने पास,
होकर अकेला मात्र
गायब हैं सारे पात्र।
क्या! होता यही है हश्र,
सारी उलझनों का अंत।
अपनी धड़कनों का साथ,
ही, है, अंत इसका नाथ।
अब है डूबना दिन रात,
तुझमें, अब नहीं कोई पास।
कहां है डूब जाता सूर्य
सारे दिन तपा वह वीर,
अतल गहराइयों के बीच
जल में क्यों नहाता।
लाल क्यों होतीं दिशाएं
रक्त क्यों है बिखर जाता।
शांत सब कुछ शांत होकर
फिर वहीं वह गुदगुदा कर,
कुनामुना कर
निकल आता
मैं वहीं फिर
निकल आता।
जय प्रकाश
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