तुम मिल सको तो मिल हि लो।
तुम मिल सको तो मिल हि लो।
बूंद बन, बहता रहा वो
आज सारी रात भर,
रिसती रही थी, जिंदगी
आंखों से उसके रात भर।
एक सरिता उमड़ती
मूक ही कुछ कह रही,
बोलती कुछ भी नहीं
चुपचाप! क्या वह बह रही?
तरलता की सेज पर
पल छिन, सिमटती रेत पर,
अनगिनत सतरें, मेट कर,
कुछ लिख रही, बस लिख रही।
शब्द भाषा के नहीं हैं
हृदय पट पर बिंध रहे हैं,
दृष्टि में धुंधली चमक है,
पर सिंजिनी... पैरों में है।
नच रहा है काल सम्मुख
डूबता कल जा रहा।
मौन हैं, खाली हैं आंखें
सपनों में कोई... छा रहा।
बीते खयालों की कशिश में
डूब.... जाने के लिए.....,
तरल बन, खुद जिस्म में
बहती रही, वह रात भर।
झड़ गई थीं पत्तियां....
जो उर मिलाती थीं कभी,
थे कहां वो फूल खिल जो
महक.... जाते थे कभी...।
सूखती ये डालियां
तिनकों में, सिमटी पत्तियां,
कह रही हैं
हाय! प्रिय
तुम मिल सको तो मिल ही.. लो।
जय प्रकाश
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