गीतों से भर जाता था घर
गीतों से भर जाता था घर।
दूर… बहुत, दूर…
मे…रा, भी…, एक
घर है कहीं।
ऐ दोस्त!
ये, रू…ह, आज भी
अकेले में
भटकती है वहीं।
(अपने बचपन का गांव और घर जो काम धंधे में छूट गए सभी को प्रियतर होते हैं)
आगाज़े जिंदगी,
मुहब्बते तरन्नुम
बसती थी वहां।
लोग, वो लोग,
जो वहां थे,
गर अब नहीं,
तो मानो अब इस
जमीं पर हि नहीं।
(हम सभी ने वहां जिंदगी का फलसफा सीखा, वहां सच्चा प्रेम बसता था। ईमान के पक्के, सच्चे लोग थे, गर गांव वासी बदला तो अच्छे लोग मानो दुनियां में नहीं रहे)
उनके लिए
अपनी थी,
आबरू-ए-इज्जत ‘सबकी’।
अब तो बस, कुछ यादें ही
बची हैं तब की।
(सब मिलजुल कर रहते थे, उनकी रहन अच्छी थी विस्मृत नहीं होती)
घर तो अनेक थे,
पर एक थे,
सुख दुख उनके।
चाचा, काका, दादा, भैया
कहते ही
पिघलते उठते थे दिल उनके।
(समरसता का समय था, करुणाशील लोग थे)
मेहमान, किसी का भी हो
वो सबका था।
खेत खलिहान किसी का भी हो
वो सबका था।
(एक परिवार हो लोग रहते थे)
मां बूढ़ी हो किसी की, किसी के बच्चे हों असहाय,
बैल बूढ़ा हो किसी का या किसी का पैर
टूट जाय,
ये विषय सबके थे,
सबको चिंता थी इनकी।
वो दुनियां सच कहूं तो
खुद में अलबेली थी।
(मिलजुल कर आपस में रहते, बूढ़ी मांताओं के पास लोग आ बैठते बाते करते, जो बैल बूढ़े उठ नहीं पाते उन्हे आसपास के लोग खुद आकर सुबह मिलजुल के उठाते, घायल चोटिल लोगो को चारपाई पर लेकर दवाखाने जाते, अद्भुत सामंजस्य था)
मैं नहीं,
मेरा भी नहीं,
बाप के बाप की भी
ताल्लुक-ए-इज्जत थी वो जमीं।
बे-गैरत होऊं गर सच न कहूं,
मां से भी बढ़कर बड़ी मां,
थी वो जमीनों-ए-जमीं।
छोड़ आया हूं बहुत
पहले, क्या कहूं,
खो गया हूं
यहीं कहीं।
तुममें
नहीं
खुद
में
मैं।
(वो परिवेश और अपनी दयार मतलब वहां बसने वाले लोग और भूमि से प्रेम, उनके प्रति जिम्मेवारी सबकी थी, अब जीविका नहीं महत्वाकांक्षा दूर खींच लाई है। यहां सब अपने में ही गुम हैं )
यदि
सुनो तो,
मैं सुनाऊं,
अपनी कहानी
एक खे..त, था,
उन ऊंची मेड़ों के भीतर मेरा,
चहक उठती थीं, वहां चिड़ियां
उनपर सुबह सुबह बड़े भिनसेहरा।
चकिया, चाकी,
जांता, ओखरी
कड़िया, मूसल,
सूप अ चलनी
झन्ना,खखरा दौरी,
झपिया, कुरुई,
बीनति रहनी
बहिनी बिटिया
अऊंनी मउनी।
चारु चंगेरी,
अवर सिकौहुती
बटुला बटुली
ढुलमुल करते
कटोरा,थरिया
मिलजुल रहते
भदेला, भदेली
नाटक करते।
कवन कवन बर्तन बतलाऊं,
थोड़ बहुत मर्जाद सुनाऊं।
हउदा, हाउदी गुड भरते थे,
डेहरी में जौ, गेहूं रखते।
कुंडा में आंटा रहता था।
कमोरा, हांडी, पतकी, नदिया,
कहतरि, तौला, मटकी, मटका,
भरुका, परई, गगरी ढकनी,
कुछ तौ सोचो बबुआ बबुनी।
भूसा बिच बखार बसता था,
जौ गोहूं उसमे रहता था।
ऊंखिया, रहरी के खेत अजब था
आकुल पाकुल खेल गजब था
(खुद में अलमस्त एक प्यारी दुनियां थी)
धान, गेहूं, अव गोजई, जौ
चना, केराव, सावां, सरसौं,
कोदो, तीसी, तिल्ली, मकई,
कूटते, पिसते, दलते, दरते,
पिसान, चावल, दलिया बनते।
मां, चाची, काकी, ताई संग
बुआ, फूफी हंसती थी हर दम।
भाभी, भौजी, दुलहिनिया सब
छेड़ति रहती देवर दिन भर।
सुबह सबेरे से संझा तक
पीसत, कूटत, नाचत, गावत
गीतों से भर जाता था घर।
जय प्रकाश
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