एक कील थी चुभती हृदय में,

एक कील थी चुभती हृदय में,

वह अकेला सोचता था, 

कुछ करे, अस्तित्व पाए।

धूल… जीवन न बने…, 

फूल बनकर महक जाए।

(एक आम सन्यासी भी बचपन से कुछ अलग होता है)

सूरज ये कहता नित्य उससे

जीवन क्षणों में जा.. रहा है,

जो भी, है करना कर.. उसे 

तूं इतना क्यों घबड़ा रहा है। 

(नेचर ऐसे लोगो से सीधे वार्ता करती रहती है, मनोबल भी बढ़ाती है)

बोलता… कुछ भी नही था, 

सोचता…. दिनभर यही था,

चलित, विचलित,हो रहा था

आत्म-मंथन… कर रहा था।

(गृह त्याग के पूर्व बाल सन्यासी के मन मस्तिष्क में कश्मकश चलती रहती है)

कठिन था, 

उस नेह को अवसान देना, 

जन्म.. से, जो बांध. रखे, थे.. उसे।

पर कहीं एक कील थी 

चुभती हृदय में, तौलना संसार…, 

जिस पर था उसे…।

(घर बार को छोड़ना कठिन होता है, फिर भी संसार की बाल सन्यासी परमतृप्ति के तराजू पर तौलता है)

समय ने करवट लिया, 

आत्मनिर्णय.. हो गया, 

बंधन सभी ढीले.. लगे, 

संबंध सब गीले… लगे।

(अंत में उसका विवेक जीतता है, सांसारिकता और उसका राग हार जाता है)

एक निश्चय… हो गया, 

मन मुठ्ठियों में बंध गया,

एक धारा…. बह चली, 

तट छोड़ती.. आगे बढ़ी।

(मन को समझ से शांत कर वह सन्यास पथ पर आगे बढ़ता है)

बन वो तिनका बह चला

छोड़.. सबका संग चला

काल के परि-पाश में वह 

बंध चुका था, बह चला।

(नियति तिनके की तरह व्यक्ति को अपने कालबन्ध में आबद्ध कर अपने साथ प्रेर कर ले जाती है)

काल का संजाल.. दृढ़ था

नियति की अंजुलि सलोनी,

बाल तन के मधुरिमा.. पर

मोह जाती प्रकृति.. भोली।

(प्रकृति मां सी ममतामई होती है, वह बाल सन्यासी के भोलेपन पर लुभाती भी है)

तन विटप से, 

लिपट जाता, 

कभी जब तब

सोचता 

"कर..स्पर्श..मां का हो.. रहा"

(पेड़ो पत्तियों की छुअन मां सी थी)

प्रेम से बंध राग…. 

कैसा भासता.. है,

सोचकर, वह 

विकल मन 

होता तभी।

(राग एक लिप्सा है, पर जब प्रेम इस पर छा जाता है तो यह पवित्र बन जाता है जैसे मां का किसी भी बच्चे से)

निष्ठुर हुए पग, 

बढ़ रहे थे

आगे आगे,

स्मृति पटल 

पर छा रहे 

अपने पराए।

(जब एक बाल सन्यासी जग का, गृह का, मां पिता का, सारे संबंधों का सदा के लिए त्याग करता है तो वह क्षण करुणा से विह्वल कर देता है)

छूटता… जग 

जा.. रहा था

जो बुना था

जा रहा था,

छूटता सब 

जा रहा था।

लालिमा.. नभ 

छा.. रही थी 

अल सुबह।

पर मन नहीं होता था 

उसका अब 

विकल।

(मन धीरे धीरे स्थिर हो आगे पवित्र जीवन की पूर्ण आस्था विश्वास से आरंभ करता है, विकलता समाप्त हो जाती है)

मैं कुछ अलग , इस लोक से हूं, 

इस तोल.. मोल.. के शोक से हूं। 

अमरत्व जो… निधि परम.. है, 

वह प्राप्ति…. मेरा लक्ष्य… है।

(प्रशांत चित्त, प्रसन्न अपने को अलग अनुभूत करता है दृष्टि लक्ष्यबद्ध हो जाती है)

बस एक.. रेशा-तंतु 

ही चिपका…. रहा, 

उर बीच फंसकर..

शब्द मां, मां कर रहा।

(मां एक ऐसा रिश्ता है जो अंत तक रिसता है इससे मुक्ति नहीं हो पाती सन्यास के बाद भी हृदय में रह जाती है)

तुल रहा था शब्द

अमृत संग वही..

संसार मिट्टी. सम 

उसे अब लग रही।

(अमृत और मां में मां ही ऊपर बाकी संसार त्याज्य)

छोड़… आया, राग… की 

अनुराग की गलियां पुरानी,

घूम.. आया… ज्ञान… की 

विज्ञान की गलियां. नवेली,


आत्मदृष्टा, आत्मवेत्ता, 

आत्मवत यह लोक था।

दिन नहीं बीते हुआ वह

आत्म-जय, परमात्म-मय था।

(बाल सन्यासी शीघ्र ही आत्मज्ञान और आत्मजय कर लेता है)

बस

एक दिन। 

देखने संसार, 

देने तुष्टि का उपहार, 

विचरता हुआ चुपचाप

प्रांगण देव के अभिराम,

पहने वस्त्र वह काषाय

माथे तिलक लेप लगाय

गुजरते भद्र पुरुष को रोक

जिसपर आ रहा था शोक,

(सिद्ध संत भी सामान्य भगवा धारी ही होते है हमारी दृष्टि असली और मामूली संत में अंतर नहीं कर पाती, संत सबके भले के लिए ही हमारे बीच आते हैं, हमारा अनिष्ट हरण ही उनका लक्ष्य होता है)

बोला,

बंधु, 

सुन मेरी बात,

तेरे साथ होगा घात! 


यह सुनते ही भद्र पुरुष डोला,

फिर जल्दी जल्दी में बोला।

(हम लोग अपने पूर्वाग्रह से भरे होते है और अति जल्दी में रिएक्ट कर जाते हैं )

पहले तूं मेरी सुन बात,

यहां तेरी नहीं चलेगी घात।

मैं तुम जैसे लोगो को जानता हूं।

तुम्हें भी खूब अच्छी तरह पहचानता हूं।


तुम एक भीखमंगे हो

बाहर से नहीं, अंदर से 

भ्रष्ट, गंदे और नंगे हो।

तुम श्राप हो इस देश पर,

समाज, लोक ही नहीं मानव पर।

(यह मेरे सामने की घटना है एक लंबी कार के भीतर बैठा व्यक्ति एक अत्यंत सिद्ध साधु से इन्ही शब्दो में बोलता रहा मैं हतप्रभ था और ये कविता लिखी जिससे कोई और ऐसा न करे)

वह सन्यासी फिर एक बार दुबारा 

अपने भीतर के समुद्र में

बह गया, 

आंखें डबडबा आईं,

खारा पानी बाहर 

बह गया।

कंठ वाष्पावरुद्ध हो, 

कहीं फंस गया।

सीने में बड़वाग्नि जली

तन झुलस गया।

(वह साधु शांत, स्थिर दृष्टि, अम्लान मुख, क्षमा उड़ेलती आंखों से, निर्मल दृष्टि से उसे सुनता रहा, वह निर्वाक हो गए उन्होंने उसे फिर भी आशीष दिए)

सन्यासी के मुख पर 

पसीने की बूंदें,

और आंखों का 

खारा पानी

मिल तो गए,

पर उस भद्र पुरुष के 

भावी को मेट नहीं सके।

तरल हृदय सन्यासी बोला

बंधु जिस लोहे और सोने

पर तुम नाज करते हो,

वह शक्ति और समृद्धि 

मैंने तज दी है।

यह काषाय और तिलक 

मानव को मानव बनाने 

के लिए ही ग्रहण की है।

यह कुंठा और पूर्वाग्रह 

ही अभिशाप है तुम्हारा। 

करुणा, प्रेम और मैत्री

ही हो भविष्य तुम्हारा।

(साधु की भावभंगिमा उपरोक्त परिलक्षित कर रही थी पर उसने मौन की भाषा में ही वार्ता की थी)

हां मैं भीखमंगा तुम्हारे सकल अनिष्ट का हूं,

याचक प्रेम, स्नेह और सुंदर भविष्य का हूं।

सब कुछ के बाद तुम सदा सुखी रहो, 

मुझे तो तुम लोग जो चाहो सब. कहो।

(ये साधु, सन्यासी, भगवा धारी बहुत कुछ त्याग कर चुके होते है, इनका जीवन अपने लिए नहीं हम सभी के कल्याण के लिए ही होता है हम उन्हे चाहे जो कहें)







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