कहीं ये गीत तुझको छू न जाएं
कहीं ये गीत,
तुझको
छू न जाएं,
नहीं तो
उड़ चलोगे
तुम मेरे ही साथ,
मिलकर बादलों के पास।
कल्पना और भाव का देश रमणीक, रंगीला होता है, लेकिन वहां का आनंद किसी के संग मिलता है।
जिसमे एक मछली
मछलियों से पूछती है।
हम धरा से दूर हैं क्यों!
इस गगन में मुक्त हैं क्यों!
बादलों में पा बसेरा घूमते हैं,
विश्व के परिधान बन हम झूमते हैं।
कल्पना और कवि का क्षेत्र निष्पाप, दुनियावी आडंबरों से दूर मुक्त होता है। व्यक्ति आनंद सागर में गोते लगाता है, मछली सा चंचल, सुंदर, रंग बिरंगे दुनिया में विचरण करता है।
जाने न कितने देश अबतक घूम आए,
पर नहीं शिशु से अभी हम आगे आए।
इस धरा की मलीनता जो बह रही चुपचाप नीचे,
आज तक उससे रहे है हम सभी बस आंख मींचे।
इस लिए हम समय की उस पेंच से हैं दूर,
जो हमेशा स्वार्थ अरु सारे अहम से पूर।
पर जहां ये मेघ अपने हो खड़े
आंखों के बंधन
बंध पड़ेंगे।
सार अपना दानकर,
हो अहम में चूर्ण
निर्जल हो चुकेंगे।
हम धरा पर जा पड़ेंगे,
हाथ में किसी बालिका के
जो लिए एक थाल,
पूजा पुष्प से साभार
मुकुलित हृदय से अभिभूत
आंखों में लिए जल पूत
मंदिर से थोड़ी ही दूर
अपने प्रियजनों के साथ
चंदन लगे हैं माथ।
प्रभु से मांगने वरदान,
झुके नयनों में भर कर प्राण
सस्मय देखती चुपचाप
बिस्मय को छुपाए पास
बढ़ती जा रही है
उसी की थाल में निर्विघ्न
मोती सा चमकता बिंदु
जा कर बैठ जाऊं।
आंख में आंखे मिला
किलकते उसके करों में।
जय प्रकाश
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