उम्र हिरन बन गुजर गई

आज की अपनी ताजा लिखी एक कविता भेज रहा हूं, आप पढ़े, और अच्छी लगे तो नीचे कमेंट में अपनी राय दें। आपको अपना समझ के  ही भेजा है।

शीर्षक है: उम्र हिरन बन गुजर गई


उम्र दिखती..... है,

गुजरती है जब लोगों... पे,

शुक्र-ए खुदा! 

जो अपना चेहरा,

बर-वक्त नहीं दिखता।   (हर समय)

अपनी उम्र का अंदाजा खुद को देखकर नहीं अपने समौरियों, साथियों को देखकर पता चलता है। ये तो अच्छा है की हरदम अपना चेहरा खुद को नहीं दिखता नहीं तो उदासी छा जाय।

न मिलें लोग, 

तो अपना भी पता कैसे चले,

इस मुहाने से अब तलक 

कितना पानी गुजरा। 


देखा उनको तो, 

तबियत थोड़ी नम सी हुई।

महक जाते है वो आम, 

जो टपकने को हैं।

पीलापन बाहर मीठापन भीतर 

कैसे आता है,

शायद ये उम्र ही राज है,

इन सभी के लिए।

अपने मित्रों के हालत और बदलते स्वरूप को देखकर थोड़ा उदासी तो होती ही है की अब उतार पर हम भी आ गए। उनकी बातो में सद्भाव और नम्रता आ जाती है जो पहले झगड़ालू थे। उम्र पका के घुलघुला कर देती है।

झुकती जाती है, 

डाली खुद से,

जब उन पर नए बौर आते हैं,

और झुक जाती हैं जब 

कैरियां गदराई, फूलीं, 

मदमाती झूमझूम उठीं।

कलियां  जब कुछ पिंक हुईं, 

सी लालिमा झलकाती है। 

फागुनी झोंको ने छुआ 

जाने किस जगह उनको,

प्यार ही प्यार उतर आया है 

नस नस इनके।

खिलने को आतुर उर हैं, 

पंखुरियां तनी जातीं हैं।

महक! तो बश में ही नहीं,

बेबस ही निकल जाती है।

किन किन ने न आके 

बसेरा बनाया इन पर,

उड़ उड़ के किए कितनो ने

प्राण निछावर इन पर।

वो रस, वो मिलन, सपनो का

बह गए सारे, समय के संग।

दिखने लगे बौरों में 

हरे नन्हें टिकोरे कितने,

सुंदर सुनहरा रसीला, आम 

जो आज आया है तुम तक,

सोचो! किन किन गलियों रंगतों से 

गुजरता हुआ आया है।

खुशनसीब हो, दुआ करो, 

ये दुनियां, और भी सुंदर बने। 






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