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Showing posts from June, 2024

हम जीतें हृदय, तन, मन परस्पर

वो भी क्या दिन थे, जब हम पहले पहल मिले थे। नए रंग, नए ढंग, सब कुछ… कितना  अच्छा.. अच्छा… लगता था। रथ के दो पहियों से  मिलजुल आगे बढ़ते रहें, सोच, सोचकर मन को  कितना… ठंडा.., ठंडा.. लगता.. था। जीवन पथ पर चलते रहें,  हम यूं ही,  एक दूसरे के  हाथों में हाथ डाले, बनाते रहें, बांहें को  एक दूसरे का उपधान              (तकिया) ऐसे ही, जब जब, जहां,  जितना दिल चाहे। उसके रसीले  गुलाबी होठों पर  फिसलती पतली स्मित  की ठंडक लिए  मिटती रेखाएं,  मेरी!  हां मेरी!  रस्सियां बन जाएं, बांध लें मुझे,  नहीं मन को भी मेरे, ठीक वैसे जैसे,  रस्सियों में बंधता है, अकनता है!  इशारे सारे!  कोई पुराना होता, नया अश्व। आबद्ध नहीं बिद्ध हों  हम एक दूसरे से अपनेपन से तन मन से कुछ ऐसे,  लिपटतीं हैं लताएं  चौबीसों घंटे, ले स्पर्श संबल का सुख  पास खड़े  किसी विटप, अंगों से। चढ़कर, इनपर, अनवरत बांधती रहती हैं परत दर परत सुकुमार झूलते, अग्र अंगों से। और कुछ इस तरह...

पत्तियां हैं, भीगती कुछ शब्द खिलकर विहंसते हैं।

उमड़ते है,  समसते हैं,  टपकते, घिर,  बरसते हैं,   जब ये बादल।  पवन रुक कर  जोहता… है,  बाट इनकी…..; हो खड़ा चुपचाप!  एकटक विकल मन से, ऊंघता है बैठ कर एकांत में दंश रखकर बादलों से। देखकर  नख-क्षत कुमारी पत्तियों की  फुनगियों पर। टप टप टपकते  बिंदु बन,  जल मधु  सहज ही धार बनकर,  अंतरों में हैं समसते। सिहर जाती.. कोंपले तब ठंड का स्पर्श पाकर…  कांपती सी हिल रही…हैं।  पुष्प का सम्भार…  भारी… हो गया है लचकती…,  असहज… होती  टहनियों पर। फल लगी ये डालियां  स्थिर खड़ी है। भार से भारित  लिए तन  कह रही हैं;  बदलियों से थोड़ा रुक जा! संभल जाऊं! घड़ी एक, विश्राम पाऊं! थक गई हूं! हिलढुल ढुलकते पुष्प पुच्छल संग लेकर दोलते इन  नव फलों का  भार लेकर। कड़कती तब  बिजुरियाँ  संघात करती बदलियों संग  बादलों की पीठ पर कितना भयानक! तब कहीं, बादल बिकट  संहात पाकर, भागते हैं, गरजते है। देखते ही देखते  भीगी धरा के होठ छूकर  छोड़ कर रस राग अपना तुरत ऊपर।...

सौंदर्य क्या है!

दिल में आता है, पकड़ लूं!  भागते  सौंदर्य को  इस! जो बिकसता  नित्य ही नीलिमा के छत्र में इस! चमचमाती  तारिकाओं बीच,... खुशनुमा सा...  चांद, यह  रोज खिलता.. छत पे मेरे रात को,.. हो तरुण.., शीतल.. अमित सुंदर! पर क्या करूं! वो दूर है!  मेरी पंहुच से…दूर.. है! तब, मन  ये कहता, पकड़ लूं,  चमकती कोई तारिका ही, खेल लूं! बस खेल लूं!  संग उसके खेल लूं। जिंदगी के शेष क्षण, हां जिंदगी के शेष क्षण। खेल भी क्या खेल है! बस मिटानी “ रेख है” जो नहीं है वास्तव में, ही कहीं पर! खोज कर उस मीड़ को जो कोर पर ही दब गई थी बहुत पहले! ही कहीं, इस जिंदगी की खोज कर उस मीड को ही ठीक करना खेल था यह। तो छोड़ दूं! उस चांद को! जो दूध में धुल,  दूध सा ही हो गया है! झिलमिलाता,  खो गया है,  काले उजले  उन घुमड़ते  बादलों में सो गया है। क्या छुपा सौंदर्य में है! क्यों बांधता  इतना हमें यह! सोचता हूं! प्रफुल्लता! इसमें छुपी है? हां प्रफुल्लता ! हर ओर इसमें  झांकती है!, एक भरापन,  पूर्णता का भास  इसमें दीखता है। क्या यही सौंदर...

संकल्प मानवता का लिए वह बह रही थी।

वह नदी थी, बह रही थी,  कौन जाने किस समय से उस द्वीप के मरुभूमि ऊपर यज्ञोंपवीती सूत्र बनकर इस-पार से उस-पार अ-विरल जल राशि लेकर मधुर शीतल। बह रही थी,  वह नदी थी बह रही थी। कौन कारण मार्ग का था आज जिस पर चल रही थी कौन कारण मोड़ का था मोड़  जिस-पर वह मुड़ी थी हां, वह नदी थी, बह रही थी। आंख से दिखता नहीं था रास्ता लंबा बहुत था। कौन संगी कौन साथी कब, कहां, कैसे मिलेगा कुछ नहीं, वह जानती थी पर वह नदी थी, वह रही थी। सतत आगे बढ़ रही थी। वह एक थी  उद्गम जहां था मधुर जलराशि का  संगम वहां था फेन सी वह उठ रही थी  गोदुग्ध सी स्वादिष्ट तब थी।  खींचती थी पास अपने सूखती सी, यह धरा तब पत्थरो के बीच से वह तृप्ति का उदघोष  करती बह रही थी। कैसी हवाएं उठ रही थीं फाड़ती थी मुख धरा का  बाहर वो जब जब निकलती थी। वह एक थी जब बह रही थी लड़ती हुई उन पत्थरों से मस्त आगे बढ़ रही थी। फुफकारती  घन नाद सी आवाज़ करती चैलेंज देती ताकतों को जो उसे घेरे खड़ी थीं। वह नदी थी बह रही थी। प्रेम था, अनुराग था, स्नेह था अंतर में उसके। तभी तो निश्चिंत होकर सतत आगे बढ़ रही थी। नदी थ...

तूं कभी न झर।

वह फूल था,  खिलता हुआ, मकरंद थी  मीठी उसकी। खिलखिला  हंसता जिधर, सच, मोती  बिखर उठती। सुंदर था,  स्निग्घ था, नहाया, नहाया  लगता था। इतना साफ, इतना लुभावना, सच कहूं,  नन्हें बच्चे की  निष्पाप आंखों  सा दिखता था। डालों पर  ठंडी हवा के साथ  हिल हिल के  ठिठोली करना, इतराना उसका, अपने रंगो आब  और रूप पर नजाकत से  मुस्कुराना उसका। नीचे खड़ी  उस बेचारी कमसिन  सी बिटिया को  हिकारत से तकना उसका! मुझसे  देखा न गया! मैने कहा  थोड़ा ठंड रख! ये दुनियां है!  बहुत जल्दी  बदल जाती है। शिखर हो या  ऊंचे बुर्ज पर रहना, बस कुछ ही समय बाद  पड़ता है उतरना। वो, ऊंचा बुर्ज हो या ये ऊंची डालें तेरी,  जमीं पर ही तो टिकी हैं,  कहीं और तो नहीं। शाम होते ही तूं  खिल कर,  इसी जमीं  पर झर जाएगा, ये सारी खुशबू  उड़ जाएगी  तुझे कोई पहचान भी,  नहीं पाएगा। सच सुनो,  तूं दिन डूबने के पहले ही झाड़ू लगाते समय  सचमुच सामान्य कचरे में मिल जाएगा। इसीलिए तो कहता हूं...

बीज तो सभी बोते हैं

आज के  जश्न पे  तुम  अपनी ये जिंदगी  गिरवी रख दो,   🪺👣 हवा पानी के साथ  जैसे  नीचे....  घाटी में गिरे.. .  कुछ ऐसे...  थोड़ा...  खुलकर  तो हंसो...।      🤓 देखो, हां, हां  पर कुछ ऐसे देखो बादलों बीच लुक-छुप करता  चतुर्थी का चांद.   🌜 नीचे देखता हो  जैसे, देखो वैसे। पहनो  कोई अच्छा सा  कपड़ा पहनो,  इंद्रधनुष  जैसे खिल उठती है🌈 ऊंचे आकाश पर  आज कुछ वैसे दिखो। चलो  तो ऐसे चलो लहर सागर की सरसराती चढ़ आती है  दौड़ती धारों पे हां वैसे लहरा के चलो।🌊 आज का ये दिन तुम्हारा है, कल तुमने जो मेहनत बोई थी,  आज उसकी ही सफलता का  नजारा है। 🌅 ये जश्न कभी कभी,  एक बार होता है, जिंदगी में🌠 और कभी कभी तो जिंदगी बिना जश्न के ही बीत जाती है।🌨️ कुछ लोग ही होते है जिनकी मेहनत और ईमानदारी की मजदूरी रंग लाती है।🎆🎇 बीज तो सभी बोते हैं कोई दिल में लालच रखकर, 🪺 कोई विश्वास में भरकर🔥 कोई कर्म से कर्म तक रह कर🪔 और कोई उस चिड़िया के  लिए  जो ...

एक फिसलता सा खिलौना।

हो फिसलता...  सा खिलौना..  साथी... कोई...  ढूंढती हूं।    🦸 कुछ कम... करे  जो बात..,  फिर भी..  रहे  हरदम साथ, उसको... ढूंढती.... हूं। 🧙 सजा दे  सपनो की  दुनियां  प्यार में वो रुला दे, हाय... ऐसा ही खिलौना एक... कोई... ढूंढती हूं।   🥰 मन मेरा... हरदम..  टटोले..,  पर नहीं... कुछ  मुंह से.. बोले, बाट...  उसकी जोहती... हूं। एक फिसलता सा खिलौना अपने लिए मैं ढूंढती हूं।    🤤 हो कोई भी... बात,  पर, छोड़े... न मेरा... साथ, उसको... ढूंढती हूं। उम्र के उस... पार..,  मेरा...  जब... शिथिल  हो.. गात, तब..भी... प्यार की... वर्षा करे  दिनरात, उसको.... ढूंढती... हूं। एक फिसलता सा खिलौना  ढूंढती हूं।    😁 लालिमा....  जब छोड़ जाए,  अंधेरे आंखों गिर्द....  छाएं..., तब भी....रहे  बैठा मेरे जो पास ...  हो चुपचाप! उसको.... ढूंढती... हूं। एक फिसलता सा खिलौना ढूंढती हूं। 😚 जब सजल...  मेरे नयन हों...,  पास मेरे  दुख के.......

आह्लाद से भर नाचती है।

कौन है, वह!  विकट बन की  स्वामिनी! छिप देखती है! दूर से इन घाटियों को! घंटियां बजती है जब  गोवंश के इन कंठ में आह्लाद से भर  नाचती है, नाचती वो। वन देवी जो सघन जंगलों में निवास करती है और वन, पर्वत, घाटियों में सौंदर्य बन कर सदैव अपनी उपस्थिति दिखाती रहती है। हमारे दुधारू पशु, गाय, भेंड या बकरियां जब इनमे घास चरने जाती हैं तो इनके गले में बंधे घंटियों की रून झुन सुन कर खुश हो नाचने लगती है। अरण्याणी नाम सुनकर  सोचता हूं,  छोर जंगल का  मैं खुश हो देखता हूं। दूर है,  अति दूर है,  पर, आस है। शायद उसी में  इन देवि का भी निवास है। हमारे वन हमारे सुंदर भविष्य की आशा है। बेशक हमसे दूर हैं पर अपना प्रतिदान ऑक्सीजन, और नमी, वर्षा जल अनेक तरह हमे देते हैं। गिर रहा है  पेड़ कोई छोर पर  कुछ इस तरह, काट खाया भेड़ियों ने भागते मृग को कहीं पर जिस तरह। सोचता हूं ! कौन है? जिसने गिराया! उस जगह  उस पेड़ को! जब हम कोई भी वृक्ष जो हरा भरा है उसे काटते हैं यह वैसे ही है जैसे कोई भेड़ियों का दल निरीह मृगों को बध करता है। ऐसा करने से यह बनदेवी क...

तंतु वीणा का, कोई है छू रहा।

वर्षा श्यामला कौन है आया  "वो" घन की छांह में ?  ☁️ आर्द्रता में  डूबता  जग जा रहा है।    🌨️ ये फुदकती  जल की बूंदे      💧 छू रहीं हैं  तन मेरा।        🫂 कुछ आज ऐसे, शीत की  चादर पे  "मन"  मेरा  बिछलता जा रहा है।  🌀 कब निकल आए,  कली के पंख,     🥀 कब लताओं ने  छुआ तन मन, देख तो!  किसलयी  पत्तों से हिलते अंग     🌿 आह! शीतल हो के कैसे आज मुझको छू रहे हैं। मन मेरा  रस धार पर  इतरा रहा है। पंखुरी शीतल,    🍀 धरा पर गिर रहीं हैं, जलविंदु लेकर मोतियों सी   पत्तियों पर  खिल रही हैं, धवल बूंदें।   💦 देख तो! तंतु वीना का  कोई तो, छू रहा है। पत्तियां हिलदुल 🌾 मचल कर गा रही है, मोतियों सी  बिखर जाती बूंद है। चुपके चुपके, नयना झुकाती  पत्तियां, सिहर कर  जाने न क्या क्या कह रही है। बूंद की ठंडी छुअन से, डालियां  चुपचाप सब कुछ  विकल मन से देखती हैं।  जलबिंदु  जब टप-टप...

मन खुश हुआ

दो पत्तियां,  🌿 क्या आ गई  सूखती उस डाल पर देखकर मन खुश हुआ।🤓 दो नन्हीं कलियां  🌷🌷 खिलने को आतुर थीं फूल की उस डाल पर देखकर मन खुश हुआ।   🐒 एक पतली रेखा  अति क्षीण सी  थोड़ी गुलाबी, ,🍹 झांकती, खिलती कली के  अधर पर बस, देखकर मन खुश हुआ।   🫣 एक चिड़िया चहकती, 🐥 बैठी हुई उस डाल पर  सबसे पतली  बस ठुंनकती है।    🐦 डाल हिल हिल कह रही है यह यहां है, यह यहां है देखकर उस डाल का वह लचकना  मन खुश हुआ।   🐬 मन खुश हुआ  देख कर कंट्रास्ट 🌽 धानी पत्तियों में खिल रहे  उस केशरी से किसलयों  में व्याप्त  अनुपम मधुरता को देखकर।😂 मन खुश हुआ  मकरंद की भीनी महक से।    🌺 चटकती उस  रातरानी के  कलिल कोमल हृदय से  आ रही थी, पास मेरे  बिन बुलाए लाज से आंखे  झुकाए थोडा नीचे।   🥀 मन खुश हुआ  सुन सरसराता  शीर्ष पर  संघर्ष होता पत्तियों का पवन के संग,  एक साथ मिलकर एक साथ टिककर।🌊 जय प्रकाश मिश्र

तेरे मुंह से नहीं, आंखों से दुआ झरती है।

मैं सुन रहा हूं, कोई बोल रहा है: तभी तो कहता हूं, तूं मां है मेरी: तेरे मुंह से नहीं,  आंखों से  दुआ झरती है। प्यार इतना  की नजरों से  छलक पड़ता है। तेरे हाथों की छुअन  मेरे दिल में उतर आती है, ऐ मां,  तूं क्या है  मैं तुझे देख सितारों में चला जाता हूं। मां सरस्वती को नमन बैठी चुपचाप विधाता के साथ,  नम्रता मूर्ति! कलाओं में सिमटी।   कलाओं का संसार  वह कैसे छोड़े,  व्याप्त संसार की  हर सीढ़ियों में अकेले अकेले। वह क्या करे! कोई इस पार,  तो कोई उस पार!  निष्पाप मधुर  चितवन लिए किसी एक के लिए  नहीं सभी के लिए, सौभाग्य ले खड़ी करती रहती है  लंबा इंतजार तुम्हारे लिए। निष्कलुष नेत्र  झपकते कहां हैं प्रतीक्षा लंबी पर शांत  थिर बैठे हैं दोनों। कोमल शुभ्र ममता मूर्ति  धवला, अपलक निहारती राह,  राह में बैठी अचला।   देने को अविकल! लिए दुनियां के  श्रेष्ठ सारे वर।  नहीं चाहिए हमें  तुम्हारा, कुछ भी देखता नभ नील को विकच आंखों से गुजर गया वह, कोई बेचारा। दुर्भाग्य का मारा। ...

युद्ध प्रायश्चित के सिवा कुछ भी नहीं है।

युद्ध क्या!  सामर्थ्य का  ही, है प्रदर्शन; या, सिंहावलोकन  पूर्व के अभिमान का है। युद्ध क्या है! शेष 'कुछ' किसी छोर पर जो बच गया था,  बहु-काल पीछे..... चाहना है आज फिर  उठती हुई..., इस बीच में फैली हुई  उस शांति का  परिणाम है । या खोज है  निःशेष का,   छोड़ जिसको  देश को  अवसर मिला था कालक्रम में  भव्य इस उत्थान का। युद्ध क्या है ?  भग्नता  टूटे हृदय की ! या युद्ध भी  थोपा हुआ  अभिशाप है। युद्ध क्या  कोई खोज... है!  मान,  मर्यादा अहम का भोज है! फैल... जाऊं,  विस्तार... पाऊं, सारे जनों में, सारे जगह से  बस मैं ही अकेला  पूजा पाऊं। क्यों ? युद्ध क्या कोई घोष है ! मैं ही बली हूं,  मैं ही परम हूं। झुककर रहो सब,  हट कर रहो सब मैं ही प्रमुख हूं,  मैं ही नियंता। युद्ध क्या है खोज सुख की, शांति की, न्याय की आकांक्षा,  या  राग है अभिमान का यह सोचता हूं। युद्ध क्या, साधन है सुख का  या यंत्रणा का अंत है। या क्या यही, अंतिम चयन अस्तित्व का है! या पहला चरण अ...

जिंदगी बस एक तमाशा ही थी।

सच कहूं तो  ये जिंदगी बस एक तमाशा ही थी। देखना ही तो था,  तटस्थ रहकर,  आनंद से बैठ कर इसे समय समय पर, समय समय तक। चीजें तो होती ही रहती हैं, लगभग सारी अपने आप,  बस आप पवित्र रहो  मन वाणी कर्म से जीवन में, जीवन भर।  हम जबरदस्ती का बोझ  लिए फिरते हैं। सारी परेशानियां,  जो जो हो सकती हैं,  जीवन भर की, जीवन भर में सोच सोच कर, डर, भय,  लोक लाज  के चलते  सीने पे  चौबीसों घंटे, रखे रहते हैं। हम कयास की  एक काल्पनिक  दुखदाई दुनियां में  अपनी वास्तविक  सुंदर दुनियां को छोड़  सामान्यतः जीते हैं। नतीजा  अवसाद,  पीड़ा, दुख,  अकारण का भय लज्जा, अपयश का डर अपनी दुर्गति को बिना मिले काल्पनिक रूप से उसे  रोज रोज पीते हैं। मैं जोर देकर फिर,  पूरे अनुभव और विश्वास  से कहता हूं, ये दुनियां  एक तमाशा ही है। अच्छे अच्छों का तमाशा  नौकरी जाने, परेशानी आने रिटायर होजाने पर साफ साफ देखो न, नजर आता है। कठिनाई, परेशानी, दरिद्रता,  दुहस्वास्थ्य, स्थितियां सभी  सतत परिवर्तन शी...

आज को जी लो।

बहुत छोटी,  ये दुनिया थी, मैं… समझ,  नहीं….. पाया, अंधेरों से  लड़ता रहा, उजालों में बैठ, नही पाया। ये दुनियां और ये जिंदगी क्या है। रोज देखता हूं इसे  मेरे भीतर से, गुजर जाती है। हां हां, जब तक  हाथ बढ़ाऊं पकड़ूं, इसको,  पंहुच से  बहुत दूर निकल जाती है। क्या ! कीमती है ? कुछ भी नही! “टी वी” में ही देखो न,  एक बाल्टी पानी पर  आजकल तपती गर्मी में घंटों घंटों तुल जाती है। भाई दूर क्यों जाओ चुनाव के दौरान तो हजार रुपए महीने पर ही अपने ईमान से डिग जाती है। फिर सोचा मैने खेला, है ये जिंदगी  खेलो जितना खेल सको, बस दिल से खुश रहो, चाहे हारो या जीतो । जिंदगी को खोज देखा, उत्स ही है जिंदगी । देखा एक दिन,  क्या लाजवाब खुशहाल  जिंदगी मौजूद थी,  “रेतुआ एस्केप” की  पुलिया के नीचे। हां हां, वही टूटी फूटी  पुरानी सी साइकिल लिए,  दुनियां से अपनी आंखें मीचे। बलुआ मिट्टी से भरी दो दो बोरियाँ लादे  एक आगे एक पीछे। वही वही, एक फ्रेम के बीचो बीच दूसरी कैरियर पर पीछे, कुल वजन भरा पूरा  कुंतल के दो बोरे बराबर जानें।...

अपने पवित्र कर्म तक सीमित रहो

उसने उस दिन  अपने असीमित भविष्य को  सीमित कर लिया, जिस दिन  खुद आगे बढ़ने की जगह अपने प्रतिद्वंदी को,  पीछे करने का  षड्यंत्र शुरू  कर दिया। अब उसकी सोच में, आगे बढ़ने के लिए  नवोन्मेष की योजना नहीं, पीछे से सबक लेकर,  कमजोरियों को कसने की  संयोजना नहीं। केवल और केवल क्षण प्रति क्षण प्रतिद्वंदिता का  जहर भरा रहता था। अपने प्रतिद्वंदी से  उल्टे-सीधे, औने-पौने, कैसे जीते,  सदा इसी का  सबब भरा रहता था। वो अब अपने चहुंओर फैले,  निर्मल बहते, फुनगते,  खिलते, फलते, झरते  शाश्वत सत्य से दूर  अपनी व्यर्थ की  बनाई सीमा में  मशगूल,  प्रतिद्वंदी की मति, गति,  परिणति से चलता था, इससे आगे वो नहीं बढ़ता था। शायद यही उसकी नियति थी। उसके भाग्य की यही परिणति थी। यद्यपि, दिन दूर नहीं  जब वह अपनी क्षमता बढ़ा रहा था,   दुनियां के आकलन से दूर अपने को खुले आसमान की  असीमित सीमा तक पहुंचाने के लिए खुली सोच ले आगे बढ़ रहा था। वो जानता था आगे बढ़ना,  दूसरों पर चढ़ना नहीं होता। अपनी अच...

मोमबत्ती हाथ में ले घूमते हैं।

प्र-फुल्लित होना,  खुश-मिजाज रहना, ऊर्जा से लबा-लब बहना,  मन को कहना: दुनियां की सुंदरता देखे आनंदित रहे ऐसे, हरी हरी दूब देख कोई गाय  आनंदित हो जैसे। अभिवृद्धि की सीमाएं छूना, हृदय में उत्स के उद्गार भरना, मनोवांछित प्राप्ति के लिए  पवित्र कर्म करना। दुनियां में सरल हृदय बन,  विशाल सोचें ऐसे, पिता अपने पुत्र के लिए  भावी सोच रखे जैसे। शुभेक्षाएं फैलें चंहुओर तुम्हारे,  स्वस्थ मन, बुद्धि, चेतना हो तुम्हारी अंग सबल, प्रबल, समर्थ रखें तुम्हें। अभिलाषाएं लता सी  ऊपर चढ़ती पुष्पित हो ऐसे, शुद्ध-शीतल-धवल-युवा  चांदनी नभ नापे जैसे। खुशियों से पगी जिंदगी हो, संगी, साथी, प्रिय से हरी भरी हो, घरों से आंखुरों की किलकारियां निकलती हों। प्रेम परिवार में, अपनों में,  सबमें बढ़े कुछ ऐसे, बन लताएं आपस में  जटिल संकुल बनाएं जै से। जय प्रकाश मिश्र अ- द्वितीय पंक्तियां ये क्या हुआ…. हमको  कि हम अब,  छोड़ कर  अपनी  कलश  ऊपर प्रजल्वित दीप की उस संस्कृति को, मोमबत्ती हाथ में  ले घूमते हैं। छोड़  निज  घर बार  ...

तेरे अल्फाज क्या हैं!

तेरे अल्फाज क्या हैं!  बवंडर, बन घुमड़ते,  घेरते मुझको! उठा के हर नाकामी से,  मुझे ले संग, हैं उड़ते हैं। भूलता खुद को, खुदा को अपनी सरहदें भी मैं  कभी, जब इनको पढ़ता हूं, तमाशा खूब होता है  मेरे अन्तस कुछ ऐसा नहीं मुझे याद रहती है, कहां मैं हूं, कहां मैं था,  कहां हूंगा, कौन मैं था, कौन हूं मैं, कौन हूंगा,  तेरे अल्फाज!  मेरे सिर चढ़..  बड़े चुपके.., हां.. बड़े चुपके; … जो कहते हैं, वही बन घूमता हूं मैं, सुबह से शाम तक खुद में।  साथ तेरे ही बहता हूं, लहर बन कर उछलता हूं, पवन का वेग लेकर हम नदी की धार बहते हैं, अचल एक साथ बहते हैं। किनारे कौन से छूटे  नहीं! कुछ याद रहता है। तेरे अल्फाज,  मुझे ले कब मेरी अपनी ही दुनियां से कहां से कब ले  उड़ते हैं। कुछ मत पूछ!  किस किस दुनियां में मुझको वे घुमाते हैं, मत पूछ। फीकी लगती है  ये असली दुनियां  सच कहता हूं। कितनी जिंदगी, जी लेता हूं, एक साथ, मत पूछ। कभी बना देवब्रत, भीष्म हस्तिनापुर को ठोकर मारता हूं, कभी हमीद बन अर्जुन पर बैठा लड़ता तो कभी हामिद का चिमटा लिए घर आ...

उम्र-ए-पड़ाव क्या है!

उम्र-ए-पड़ाव.. क्या.. है! जरूर... देखो, एक बार! झांककर ही सही, फिर कहना,  सभी के लिए ये जरूरी...  है.. की नहीं..। फिर भी..,  मैं. कहता हूं,  हो सकता है, मैं  गलत हूं,  तुम.. ही, हो सही। मेरी सलाह है; आप.. सभी को। जिंदगी रहते.., कम से कम एक बार तो, मिल लो! 'जिंदगी से.. दूर.. होती  किसी.. की.. भी, जिंदगी से।' किसी की,  'सुनी' नहीं,  अपनी देखी, p अनुभूति से जागो,  यथार्थ धरातल पर जिओ,  जीवन में जिंदगी.. बांटो। लेकिन तेज धूप* में  दिखे…गा, क्या ?  तुमको… जिंदगी के “अंधेरे का सच”  नहीं ! बहुत कम! यह तो वैज्ञानिक सच है,  जानते ही हैं, हम। यही… तो है,  जिंदगी का भी… सच। नहीं दिखता जवानी में  ही नहीं, तब तक,  हाथ पैर चलते हैं तुम्हारे तब तक। झूठ क्यों बोलूं,  यही तो है, जादू जिंदगी का* देखो न,  जा के,  कभी  किसी भी वृद्धाश्रम में,  वहां धूप कम होगी, क्योंकि, जिंदगी चलते चलते  अपनी छांव में उतर आती है बूढ़ों से भरे कुछ कमरों में अपनों... के बीच.... नहीं,  अपनी ही पुरानी.. ...

ढाक के तीन पात

  वह उड़ा…., उड़ सकता था, जितना… उतना… पंख ही तो थे, उड़ा सकते थे…. कितना। पंख उड़ा सकते थे तन को ऊपर, ‘सीमा तक’। पर वह तो  मन से, उड़ा,  मन, भर उड़ा,  अपने ‘सोच की  सीमा तक’ उड़ा। देखिए न! असीमित से दिखते  संसार में,  सब कुछ... कितना  ‘सीमित’ है यहां। उड़ान तन की हो या मन की  सीमा होती ही है। वहां जाकर हर कोई  ‘थक’ जाता है। या तो तन से,  तन से नहीं,  तो मन से  मन से नहीं,  तो पंख रूपी साधन से। शरीर ही तो साधन है, हम सभी का, तन और मन की हर संभव उड़ानो के लिए। पर ‘कीलित है समय कील से’ अपनी पुरानी ‘मजबूरी’ लिए। हर उड़ान जमीं से दूर  ऊंचे आसमान में होती है, अपनो से, सभी से, बहुत.. दूर..  नितांत एकांतों में होती है। जैसे जैसे उड़ान, ऊपर होती जाती है खुद तो जैसे उड़े थे, वैसे ही रहते हैं, पर नीचे के लोग और संसार  ‘छोटे.., और.. छोटे’ होते जाते हैं।  हां, नीचे के लोग, दिखते तो हैं, उतने ऊपर से, उड़ने वाले की, आंखे भी, वही रहतीं हैं, पर थोड़ा ऊपर उड़ने के बाद, लोगो की ही नहीं,  अपनो की भी  दीन-ओ-...

प्रेम ही वह आदि है अस्तित्व है अवसान है।

'सूत्र' क्या संसार. के हैं,  बांधते... इसको बराबर, सहज ही वे साथ अपने आदि से अब तक निरंतर। जीव, जड़ भीतर बसा जो समय बन कर चल.. रहा है बिखरते... हम.. जा रहे.. हैं सूत्र में बंध बंध कर निरंतर। पर सूत्र क्या है ? एक धागा, थोड़ा लम्बा,  कुछ कणों का, साथ आकर,  मिल संभल, स्थान लेकर,  एक के संग एक मिलकर  शांति से, सद्भाव से  एक साथ रहकर,  संघ को अस्तित्व  देना,  कुछ अलग एक साथ बंधकर  दूसरों को जोड़ने की  शक्ति का आधार बनना। सूत्र ही है। हां जोड़ना  किन्हीं अन्य को,  खुद जुड़ के रहना,  सूत्र  ही है।  जोड़ना क्यों है जरूरी, देखते हैं। जुड़ना, युजना  एक ही हो, ऐसा नहीं है। "जोड़ना है, दबाव से, शक्ति से,  संगत-असंगत, स्वार्थ में वशीभूत होकर। तात्कालिक लाभ की अंधता के साथ होकर।" युज-ना स्वभाव है,  स्वाभाविकता है। शक्ति या दबाव नहीं,  सहज प्रेम का प्रवाह है हां यह प्राकृतिक सद्भाव है।  परिवार, मित्र, दायित्व के सूत्र बनते हैं  इसी से। संसार को बांधकर  रखते यही हैं। संसार का मूल सूत्र...

वो कौन था, क्या ‘सब्र था’! मैं जानता नहीं।

मिट्टी है ये, मिट्टी ही थी मिट्टी ही रहेगी, सोचता हूं,  फिर भी इसी में,  कुछ फूल उगा लूं। रंग चटक आए  गर, अगर, तो अच्छी बात है, ख्वाइश थी,  की, एक बार तो,  खुशबू से, नहा लूं। वो कौन था,  क्या ‘सब्र था’! मैं जानता नहीं। “यातना” वीभत्स थी; फिर भी, झुक कर निकल गई। पछताती रही रात भर आंसू निकाल कर रो रो के पूछती है, अब की क्या 'मैं'  बूढ़ी हो गई। वो कौन था पास, उसके क्या.... था वो तो खाली.... था,  हर... तरह...., मौन में डूबा...,  शांति में पगा...  अपने में ही स्थिर...,  फिर क्यों अपना “ग्रेट-हीरो”  सामने उसके  ‘इतना’ बौना....बना... खड़ा। शौर्य, वीर, पराक्रम, शक्ति, उपलब्धि, संपदा, सम्मान, यश, स्वास्थ्य क्या क्या नहीं था  उसके पास,  'बस अपने  लिए सब'। जीतना  जिंदगी में,  फहराना झंडे, यही तो था उसका काम। आंखों में मद, चाल में तीव्रता, रहन सहन में अकड़, लोगो में पकड़ क्या, क्या नहीं था उस पर। फिर, वह क्यों, झुक  गया, उसके  पैरों तक पहुंच गया।  जिस पर  कुछ भी तो  नहीं, बचा... था, अब...

जीवन और जीवन का सुख अलग अलग हैं

धूप हो गई थी,  आज भी  कुछ देर पहले ही, अंधकार की कालिमा ने  धरा से, विदा लीं, छुप गईं, प्रकाश के गुह्यतम  अंतरों मे, जहां तहां जगह मिली। फिर जीवन ने भी अपनो के लिए, यहां-वहां, जहां-तहां ऊपर पेड़ों के भीतर  और नीचे घरों के अंदर,  थोड़ा थोड़ा  अंधेरे को  बचा रखा था, चुपके से ग्रीष्म के उजले थपेड़ों से  अपने अपने छोटे बच्चों और बिमारों, बूढ़ों और अपंगों को बचाने और बचने के लिए। अंधेरा तो नहीं कहिए, स्याहपन ही बचा था,  जिसे  लपेट रखा था पुरानी पत्तियों ने  फुनगियों से नीचे, टहनियों और डालो पर, ठीक वैसे, जैसे  घरों में, अजलस्त बूढ़े लोग कमरों में छुपाए रहते है  सुबह के बाद  कुछ सुबह तक, अपने  ओढ़े, पहने कपड़ों के भीतर। कुछ भी कहो, इन पुरानी गाढ़ी  हरी पत्तियों ने  उस पेड़ पर बसे  उड़ज नन्हे मुन्नों के लिए उसे  एक अच्छा  घर बना रक्खा था।  जेठ की तपती गर्मी से बचने के लिए तो छोटा स्वर्ग बना रखा था। यद्यपि हवा बहती थी तो  ये घर हिलता था, पर बड़े बड़े  फले  आमों ने  ड...

मनुष्यता पंकिल हुई !

मनुष्यता पंकिल हुई !  आज की यह प्रगति, पूंजीवाद के चौपाए पर  थिरकती, लोगो की जरूरी  जरूरत से बेखबर, सब कुछ नजरंदाज करती। अपनी....,  बस अपनी, ही धुन में  दौड़ती.... बिना ब्रेक  रातदिन.... अनवरत! दबाती..., धकेलती....,  लोगों को...., पुचकार... पुचकार कर, 'बोरों' को  'झोलों में' भरती। क्षैतिज बसावट को  ऊंची बहुमंजिलो में बदलती। अनेकानेक के हिस्सों को  चूसती, कूटती, पिसती,  घोल घोल कर पीती।  बेखबर, बेखौफ,  नियति के शाश्वत  न्याय की जानबूझकर  खिल्लियां उड़ाती। अगाध सुविधा,  विलास, प्रमोद की अपनी  नियमावली में मदमग्न। आखिर! दबाव सहने की भी तो  एक सीमा होगी!  कोई तो सोचो। गुब्बारे के फूलकर  फटने, फूटने से पहले। क्यों कि  गुब्बारे के फूटने से, क्या केवल गुब्बारे को ही  नुकसान होगा। सोचो, विचारो ! ‘बम’ तो खुद में फूटता है, तो फिर लोग  क्यों मरते हैं ..! नहीं उसके भीतर का दबाव  और सामान बाहर ही तो आयेगा। सोचो,  कुछ लोग ही सही,  ये पूंजीवाद, भयानक  जहर का गुब्बारा ह...

ये 'दिनों' की वर्षात जो होती है... रोज.. रोज…,

ये 'दिनों' की वर्षात जो होती है...  रोज.. रोज…, हम सभी के मासूम  चेहरे को  भी... तो. .  धुलती… है  रोज… रोज..। देखो न, ध्यान से  बिना इजाजत लिए  तुमसे….  काले. बालों… की..  कालिमा.  चुपचाप,  धोती हैं  रोज रोज। कुछ भी कहीं भी कितने भी  जतन से रखो,  हवाएं…  गुस्ताख… होती हैं, नम्र, चिकनी  कितनी भी हो त्वचा अपनी झुर्रियां रोज  बनतीं हैं। ऐसा ही एक… वाकया…. हुआ मेरे भी… साथ… एक… दिन…., मैं सच कहता हूं, तलविहीन, गहरे गड्ढे में, मैं.... गिर गया, उस.. दिन। आप से ये सब कहने में शर्म कैसी किसी को दुनियां की वेशकीमती  सच्चाई... बताने में, बेशर्मी.. कैसी। मेरे लाइफ का… जो, असली… हीरो… था, अपनी लाइफ में, कुछ दिनों से जीरो... था। उधर उम्र ने भी… अपना…कमाल… दिखाया इधर जिंदगी ने माल-ओ-असबाब निपटाया। देखते ही देखते  वो अपनी कुर्सी से  अचानक ही गुम हो गया, उसका सारा का सारा असबाब-ए-शबाब  जाने कहां घुप हो गया।   आखिर एक दिन  वो दिख गया! जब उसका सारा  रंग धुल गया! उम्र की सीढ़ियों पर बैठ...

क्या करूं प्रतिदान तुमको

प्रतिदान तुमको क्या करूं  मैं, खड़ा... यह सोचता.. हूं, झुकी पलकें, स्रवित नयना मैं खड़ा... ही भीगता.... हूं। जब किसी से हम कृतार्थ होते हैं या आंतरिक रूप से तुष्ट होते हैं या किसी अपरिहार्य स्थिति में हमे देवदूत बन कोई अनपेक्षित सहायता कर देता है तो हम उसकी कृपा से भीग जाते हैं और 'भरे मन से, नम आंखों से' उसको और उस परमात्मा को धन्यवाद कर कृतज्ञता प्रगट करते हैं। पत्तियां मेरी लरज कर  खेलतीं जब संग... तेरे, उर तेरा पाषाण का था खिल उठा है... संग मेंरे। एक छोटा सा शिशु जब किसी अति कठोर हृदय और विपलवी मन के व्यक्ति को अपने कोमल हाथ पैर से स्पर्श कर बाल लीला करता है तो वह पाषाण हृदय भी गल जाता है, मृदु हो जाता है। द्वितीय पड़ाव:   शब्द तरी की मनोरम यात्रा भूला,  सच ‘वह’  व्यथा..  बिरथ* की अपनी सब...,  जो,  उसको  घेरे... थीं। झूमां....  बैठ,  तरी*... हिलती..  वह,  कविता...  पढ़ पढ़  मेरे... मन की। * सांसारिक चिंताएं * छोटी नौका अनेक बार हम संसार में बेकार की बातो को सोच कर दुखित हो जाते हैं उस समय कुछ लोगो द्वारा...