क्या करूं प्रतिदान तुमको
प्रतिदान तुमको क्या करूं
मैं, खड़ा... यह सोचता.. हूं,
झुकी पलकें, स्रवित नयना
मैं खड़ा... ही भीगता.... हूं।
जब किसी से हम कृतार्थ होते हैं या आंतरिक रूप से तुष्ट होते हैं या किसी अपरिहार्य स्थिति में हमे देवदूत बन कोई अनपेक्षित सहायता कर देता है तो हम उसकी कृपा से भीग जाते हैं और 'भरे मन से, नम आंखों से' उसको और उस परमात्मा को धन्यवाद कर कृतज्ञता प्रगट करते हैं।
पत्तियां मेरी लरज कर
खेलतीं जब संग... तेरे,
उर तेरा पाषाण का था
खिल उठा है... संग मेंरे।
एक छोटा सा शिशु जब किसी अति कठोर हृदय और विपलवी मन के व्यक्ति को अपने कोमल हाथ पैर से स्पर्श कर बाल लीला करता है तो वह पाषाण हृदय भी गल जाता है, मृदु हो जाता है।
द्वितीय पड़ाव:
शब्द तरी की मनोरम यात्रा
भूला,
सच ‘वह’
व्यथा..
बिरथ* की
अपनी सब...,
जो,
उसको
घेरे... थीं।
झूमां....
बैठ,
तरी*... हिलती..
वह,
कविता...
पढ़ पढ़
मेरे... मन की।
* सांसारिक चिंताएं * छोटी नौका
अनेक बार हम संसार में बेकार की बातो को सोच कर दुखित हो जाते हैं उस समय कुछ लोगो द्वारा लिखित कुछ शब्दों की लाइने हमे याद आने पर हमारे लिए दुख मुक्ति का काम करती हैं। वह उस माहौल को बदलने की क्षमता रखती हैं।
घूमां
‘लोक’
अगम निर्जन
‘वह’
वन अंतर,
नद पुलिन,
सुहावन,
सागर... की
लहरों.... पर बैठा
कितने
जीवन...
जी...
आया वह।
दो ही.... रंग...
मेरे अक्षर... थे
डू बा....उनमें....
जब वह गहरे..,
जाने....
कितने....
रंग नहाया।
घड़ी...
दो घड़ी...
पढ़कर ही वो।
लिखावट सफेद कागज पर काले रंग की स्याही से की जाती है इन दो रंग के अक्षरों में अनगिनत रंग और सौंदर्य, भाव और न जाने क्या क्या भरा रहता है। इन्हे पढ़ हम अनंत सुख और आनंद पा सकते हैं।
अंतिम पड़ाव:
कटाक्ष आज की जीवन शैली पर।
इन कपड़ों... पे
है तू राजी,
या राजी...
इन रंगों... पर।
तुझको
शर्म नहीं दिखती है,
आंखो के...
इन चश्मों पर।
रंग.. अंग का.
छुपा हुआ है,
अंगराग..... के
रंगों...... में,
होठ रसीले...,
कहां.. दीखते
चम चम पॉलिश...
के भीतर।
आज रंग रोगन की, पेंट पालिश की, बनावटी दुनियां में ओरिजनल सुंदरता जो कुछ बची थी नष्ट हो रही है, अंगो का और वस्तुओ का मूल रचना ही बदल दी जा रही है। आंख से शर्म, हया और अपनत्व, करुणा, प्रेम झांकता था जो रंगीन चश्मों में छुप गया है। नकली जीवन की ही पूजा हो रही है।
जय प्रकाश मिश्र
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