जीवन और जीवन का सुख अलग अलग हैं
धूप हो गई थी,
आज भी
कुछ देर पहले ही,
अंधकार की कालिमा ने
धरा से, विदा लीं,
छुप गईं, प्रकाश के गुह्यतम
अंतरों मे, जहां तहां जगह मिली।
फिर जीवन ने भी
अपनो के लिए, यहां-वहां, जहां-तहां
ऊपर पेड़ों के भीतर
और नीचे घरों के अंदर,
थोड़ा थोड़ा अंधेरे को
बचा रखा था, चुपके से
ग्रीष्म के उजले थपेड़ों से
अपने अपने छोटे बच्चों और
बिमारों, बूढ़ों और अपंगों को
बचाने और बचने के लिए।
अंधेरा तो नहीं कहिए,
स्याहपन ही बचा था,
जिसे लपेट रखा था
पुरानी पत्तियों ने
फुनगियों से नीचे,
टहनियों और डालो पर,
ठीक वैसे, जैसे
घरों में, अजलस्त बूढ़े लोग
कमरों में छुपाए रहते है
सुबह के बाद
कुछ सुबह तक, अपने
ओढ़े, पहने कपड़ों के भीतर।
कुछ भी कहो,
इन पुरानी गाढ़ी
हरी पत्तियों ने
उस पेड़ पर बसे
उड़ज नन्हे मुन्नों के लिए
उसे एक अच्छा
घर बना रक्खा था।
जेठ की तपती गर्मी से
बचने के लिए तो छोटा
स्वर्ग बना रखा था।
यद्यपि हवा बहती थी तो
ये घर हिलता था,
पर बड़े बड़े फले आमों ने
डाल पर शॉकर सा लगा रखा था।
भरी दुपहरी,
जलती हवाओं से बेखबर
हरी पत्तियों में छुप छुप
कोयल मौसी ने तो राग
मल्हार बहा रखा था।
उन पत्तियों में रखेअंधेरे में…
शीतलता थी…,
चंचल पवन की झुलसाती जलन से
बचा लेने की तरलता थी,
शांति थी, सबसे बढ़कर
तेज चुभते प्रभानुजों* के
घातक प्रहार से अद्भुत सुरक्षा थी।
* सूर्य की तीक्ष्ण किरणे
उन पुरानी गाढ़ी
हरी पत्तियों में दूसरी तरफ
गहरे घने अंधेरे में
एक काक और काकिन ने
रहस्यमय घोंसला बना के
उसे और काला कर रखा था।
बस कह दिया।
लेकिन जीवन!
जीवन तो उन ताम्र, पीत, धानी
रंग की सुकुमार पारदर्शी कोमल
किसलयों के ऊपर ही
नाचता, खेलता
लड़ता, भिड़ता
जलता, मुरझाता
संघर्ष करता
हवाओं के थपेड़े सहता
आगे बढ़ रहा था।
देखिए न
जीवन और
जीवन का सुख
अलग अलग चीजे हैं।
पर एक ही पेड़ पर,
पहला, नवेली फुनगती
किसलयों के रूप में
आगे बढ़ता है
और दूसरा
पुरानी गाढ़ी हरी कालिमा
लिए पत्तियों के चंहुओर
अंधेरे में विलास की
शीतलता लिए
कुछ दिनों में टूट कर
गिर जाने के अवश्यमेव
‘नियति नियम’ में
बंधा रहता है।
लेकिन पेड़!
पेड़ ने, न जाने
कितने सुरम्य पतहरा और
विकट पतझड़ देखे हैं।
नई कुमुनाती पत्तियों को
निकलते,
पुरानी चित्तीदार पत्तियों को
झड़ते देखे हैं।
जब ये दोनो
ठिठुरती ठंड में
साथ छोड़ देते हैं,
तो
वह टहनियों में
जीवन बंद कर लेता है।
हां वही, तब वह
बाहर से कम
अपनी जड़ों से
ज्यादा सांस लेता है,
पर जिंदा रहता है और जीता है।
देखिए न !
जीवन नीचे जड़ों में भी,
उतना ही है,
ऊपर जितना, मचलती
फुनगियों, में होता है।
गर मुझे पूछो
तो सहज जीवन
इस मरियल सी
दिखती मृदा के
हृदय में भी
चलता ही रहता है।
जीवन क्या बीज में बंद है?
या बहती हवाओं,
छुलछुलाती जलधाराओं,
उमड़ते मेघों,
शांत संयत मृदा के
उर के भीतर कहीं छुपा बैठा है।
आप खुद सोचो
थोड़ा और सोचो…
जीवन इनमे से
किसी में भी नहीं
जीवन एक सत्य है,
सत्य सर्वत्र है।
जीवन कई चीजों के
जुड़ने की नैसर्गिक क्रिया है।
आपस में जुड़ना,
और जुड़ कर
जड़ से जीवन बनना
एक स्वतःस्फूर्त
व्यवस्था है।
यह स्वतःस्फूर्ति ही
वह शक्ति है
जो मूल है,
जीवन का
जगत का
और पूरे समष्टि का।
शक्ति क्या है,
आंतरिक इच्छा,
इच्छा ही विस्तार पाती है,
दृश्य के साथ ही
परिणाम भी लाती है।
परिणाम…. कर्म की प्रेरणा हैं,
प्रेरणा उत्स है,
शक्ति का ही आनु-भौविक रूप है।
जय प्रकाश मिश्र
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