युद्ध प्रायश्चित के सिवा कुछ भी नहीं है।

युद्ध क्या! 

सामर्थ्य का 

ही, है प्रदर्शन;

या, सिंहावलोकन 

पूर्व के अभिमान का है।


युद्ध क्या है!

शेष 'कुछ'

किसी छोर पर

जो बच गया था, 

बहु-काल पीछे.....

चाहना है आज फिर 

उठती हुई...,

इस बीच में फैली हुई 

उस शांति का 

परिणाम है ।


या खोज है 

निःशेष का,  

छोड़ जिसको 

देश को 

अवसर मिला था

कालक्रम में 

भव्य इस उत्थान का।


युद्ध क्या है ? 

भग्नता 

टूटे हृदय की !

या युद्ध भी 

थोपा हुआ 

अभिशाप है।


युद्ध क्या 

कोई खोज... है! 

मान,  मर्यादा अहम का भोज है!

फैल... जाऊं, 

विस्तार... पाऊं,

सारे जनों में, सारे जगह से 

बस मैं ही अकेला 

पूजा पाऊं।


क्यों ?

युद्ध क्या कोई घोष है !

मैं ही बली हूं, 

मैं ही परम हूं।

झुककर रहो सब, 

हट कर रहो सब

मैं ही प्रमुख हूं, 

मैं ही नियंता।


युद्ध क्या है

खोज सुख की, शांति की,

न्याय की आकांक्षा, 

या 

राग है अभिमान का यह

सोचता हूं।


युद्ध क्या, साधन है सुख का 

या यंत्रणा का अंत है।

या क्या यही,

अंतिम चयन अस्तित्व का है!

या पहला चरण अतिरेक का।


यदि युद्ध से "सुख शांति" है! 

तो तथाकथित "सुख शांति" क्या है?


'सुख' खुद में क्या है? 

मानसिक अनुकूलता,

या संज्ञान है, यथार्थ का।


तो यथार्थ क्या है 

संतोष है उस विकल मन का 

या विचलनों का रूप कोई

भागता हर एक क्षण पर।

सोचता हूं

शांति है क्या?

युद्ध का परिणाम है यह!

तो तथाकथित "वह शांति" क्या है।

खोजते जिसको जनम भर योगिजन

एकाग्र होकर, निविड वन में।


फिर "यह शांति" कैसी!

व्याप् जाती  सकल जग में 

ध्वंस से, नाश से, सर्वस्व के संहार से

कोई नहीं जब शेष बचता, 

कुछ नहीं अवशेष रहता।

क्या वही है शांति!

बोलो क्या वही है शांति!


विश्वास ही जब मर गया, 

सूरज भी जानों ढल गया।

उम्मीद अपने घर गई

खेत चिड़िया चुग गई।

तो शांति ही उपचार है!

सच "शांति की दरकार है!"


यदि "शांति की दरकार है,"

तो युद्ध क्यों है?

रक्त पीड़ा विछोह मिश्रित 

यातना का खेल क्यों है?


क्या शक्तियां थक चूर होकर 

शांत होंगी एक दिन,

शांत होंगे वीर चुक कर 

धरा पर

गिर गिर, लुढ़क कर, एक दिन।


सोचता हूं!

वह शांति होगी या 

निराशा शेष के अवशेष की 

अंतिम क्रिया मुर्दानगी की

व्याप्ति होगी।

तुम ही बताओ। 

क्या वही "वह शांति" होगी। न्या


न्याय है ,

यदि युद्ध तो, 

अपमान क्यों इससे जुड़ा है। 

क्यों पराजय सालती है 

मन को इतना,

सोचता हूं।

राग है 

अभिमान का 

यदि युद्ध 

तो अभिमान 

आखिर चाहता क्या?

टूट जाए, 

श्राप पाए, 

इस जहां से मुक्ति पाए 

युद्ध ही से दंश पाकर 

वो धरा से मिट ही जाए।


कुछ पावना,

क्या युद्ध से है !

बाकी रहा जो अतीत का,

तो युद्ध ही क्यों 

याचना फिर न्याय की हो!


अवमानना यदि न्याय की हो

ताड़ना सब  मिलकर करें।

यदि  संग नहीं सब मिल सकें तो,

याद रखना,

बिजय की यह लालसा ही 

जन्म देगी मृत्यु को, 

अन्याय पालित स्वार्थ ही 

ले डूबता है स्वयं को।


थोड़ा समय दो, 

छीजने दो, 

दुर्भाग्य अपना पग पसारे,

शांति से उस अंधता को मार्ग तो दो।

आंख तो उसके नहीं है, 

गंध पर चलती है वो,

गति तो उसकी अति शिथिल है, 

पर मार्ग पर बढ़ती है वो।

न्याय कोई प्रतिक्रिया है, 

ऐसा नहीं तुम सोचना।

यह शांति से सद्भाव से 

निश्चित ही हल है मानना। 

प्रतिकार किसका वह करे, 

उद्धार सबका वह करे

मानव हो तुम, 

तुम हो नियंता, 

इस न्याय के ही रूप में

ईश्वर तुम्हारे साथ है।

युद्ध प्रायश्चित के सिवा 

कुछ भी नहीं है, याद है।

जय प्रकाश मिश्र






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