हम जीतें हृदय, तन, मन परस्पर

वो भी क्या दिन थे,

जब हम पहले पहल मिले थे।

नए रंग, नए ढंग,

सब कुछ… कितना 

अच्छा.. अच्छा… लगता था।


रथ के दो पहियों से 

मिलजुल आगे बढ़ते रहें,

सोच, सोचकर मन को 

कितना… ठंडा.., ठंडा.. लगता.. था।


जीवन पथ पर

चलते रहें, 

हम यूं ही, 

एक दूसरे के 

हाथों में हाथ डाले,

बनाते रहें, बांहें को 

एक दूसरे का उपधान              (तकिया)

ऐसे ही, जब जब, जहां, 

जितना दिल चाहे।


उसके रसीले 

गुलाबी होठों पर 

फिसलती पतली स्मित 

की ठंडक लिए 

मिटती रेखाएं, 

मेरी!  हां मेरी! 

रस्सियां बन जाएं,

बांध लें मुझे, 

नहीं मन को भी मेरे,

ठीक वैसे जैसे, 

रस्सियों में बंधता है,

अकनता है!  इशारे सारे! 

कोई पुराना होता, नया अश्व।


आबद्ध नहीं बिद्ध हों 

हम एक दूसरे से

अपनेपन से

तन मन से

कुछ ऐसे, 

लिपटतीं हैं लताएं 

चौबीसों घंटे, ले स्पर्श

संबल का सुख 

पास खड़े 

किसी विटप, अंगों से।

चढ़कर, इनपर, अनवरत

बांधती रहती हैं परत दर परत

सुकुमार झूलते, अग्र अंगों से।


और कुछ इस तरह 

शुभ युग्म निर्मित हो हमारा।

हम जीतें हृदय, तन, मन

परस्पर, कर समर्पण, सारा।

और भरते रहें, शुभ कलश में

पवित्र जल सी अपनी सारी 

इच्छाएं, अभिलाषाएं 

मानते हुए समाज की

सारी मान्यताएं, 

आदर्श हम बनाएं।

जय प्रकाश मिश्र

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