ये 'दिनों' की वर्षात जो होती है... रोज.. रोज…,
ये 'दिनों' की
वर्षात
जो
होती है...
रोज.. रोज…,
हम सभी के मासूम
चेहरे को भी... तो..
धुलती… है
रोज… रोज..।
देखो न, ध्यान से
बिना इजाजत लिए
तुमसे….
काले. बालों… की..
कालिमा.
चुपचाप,
धोती हैं
रोज रोज।
कुछ भी
कहीं भी
कितने भी
जतन से रखो,
हवाएं…
गुस्ताख… होती हैं,
नम्र, चिकनी
कितनी भी हो
त्वचा अपनी
झुर्रियां रोज
बनतीं हैं।
ऐसा ही एक… वाकया…. हुआ
मेरे भी… साथ… एक… दिन….,
मैं सच कहता हूं, तलविहीन, गहरे
गड्ढे में, मैं.... गिर गया, उस.. दिन।
आप से ये सब कहने में शर्म कैसी
किसी को दुनियां की वेशकीमती
सच्चाई... बताने में, बेशर्मी.. कैसी।
मेरे लाइफ का… जो, असली… हीरो… था,
अपनी लाइफ में, कुछ दिनों से जीरो... था।
उधर उम्र ने भी… अपना…कमाल… दिखाया
इधर जिंदगी ने माल-ओ-असबाब निपटाया।
देखते ही देखते
वो अपनी कुर्सी से
अचानक ही गुम हो गया,
उसका सारा का सारा
असबाब-ए-शबाब
जाने कहां घुप हो गया।
आखिर एक दिन
वो दिख गया!
जब उसका सारा
रंग धुल गया!
उम्र की सीढ़ियों पर बैठा,
वह कुछ भांप रहा था,
वह सामने नहीं बिल्कुल
नीचे की ओर झांक रहा था।
कुछ सोचता हुआ वह
खड़ा था सरे बाजार,
बस उसके आगे
उसकी कोई बात,
मुझसे मत कर यार!
उसका तन ही नहीं
मन भी
अब धुल चुका था,
मैने अपनी आंखों देखा
वह एक छोटे बच्चे की तरह
निर्मल हंसी हंस रहा था।
“एक रुपया”
मांग रहा था
‘वह’
मुझ से,
जिस रुपये को ही
जिंदगी भर..
लुटाया था उस शख्स ने।
वो कैसा हो गया,
कैसे हो गया
मैं बस यह
सोचता ही रह गया।
इसीलिए कुछ कहना चाहता हूं मैं भी
अब तुमसे,
लेकिन नहीं
वह सब मैं
कह ही नहीं सकता
कभी भी तुमसे।
तुम खुद ही थोड़ा सोचना,
कितना भी हो, शर्म, हया
के लिए
परदों के लेयर्स होते हैं
हमारे अपने
कब तक,
तुम्हारे अंतर को उसने
नहीं धोया है
जब तक।
दुनियां को थोड़ा गहराई से सोचो
आगे बढ़ो कम से कम
एक सूखते पौधे को तो सींचो।
पौधा समझते हो न
जिसमे जान है, सम्मान है
जिनकी स्मृतियों में तुम्हारा निशान है।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: दिनों की वर्षात मतलब समय चक्र, समय के बरसने से बहती जल धार हमारे अपने चेहरे हमारे स्वयं में और चंहुओर सबकुछ बदलती रहती है, बाल इसी धारा में धुल कर काले से सफेद होते रहते हैं।
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