आज को जी लो।
बहुत छोटी,
ये दुनिया थी,
मैं… समझ,
नहीं….. पाया,
अंधेरों से
लड़ता रहा,
उजालों में
बैठ, नही पाया।
ये दुनियां और ये जिंदगी क्या है।
रोज देखता हूं इसे
मेरे भीतर से, गुजर जाती है।
हां हां, जब तक
हाथ बढ़ाऊं
पकड़ूं, इसको,
पंहुच से
बहुत दूर निकल जाती है।
क्या ! कीमती है ?
कुछ भी नही!
“टी वी” में ही देखो न,
एक बाल्टी पानी पर
आजकल तपती गर्मी में
घंटों घंटों तुल जाती है।
भाई दूर क्यों जाओ
चुनाव के दौरान तो
हजार रुपए महीने पर ही
अपने ईमान से डिग जाती है।
फिर सोचा मैने
खेला, है ये जिंदगी
खेलो जितना खेल सको,
बस दिल से खुश रहो,
चाहे हारो या जीतो ।
जिंदगी को खोज देखा, उत्स ही है जिंदगी ।
देखा एक दिन,
क्या लाजवाब खुशहाल
जिंदगी मौजूद थी,
“रेतुआ एस्केप” की
पुलिया के नीचे।
हां हां, वही टूटी फूटी
पुरानी सी साइकिल लिए,
दुनियां से अपनी आंखें मीचे।
बलुआ मिट्टी से भरी
दो दो बोरियाँ लादे
एक आगे एक पीछे।
वही वही, एक फ्रेम के बीचो बीच
दूसरी कैरियर पर पीछे,
कुल वजन भरा पूरा
कुंतल के दो बोरे बराबर जानें।
नहीं नहीं
अभी आप कहां हैं, जिंदगी
इतने वजन से नही भरती है,
नीचे एक बोरी और एक बाल्टी
अभी लदने के इंतजार में पड़ी है।
बीस लीटर की बाल्टी बालू से
मुंह-ऊपर तक भरी है।
मेरे देखते ही देखते
वो भारी बाल्टी
साइकिल के हैंडल पर
बंधी लटकी पड़ी है।
सचमुच इस खुशहाल जिंदगी
की पसीने से तर बतर,
हाल पर,
शर्मिंदा होकर,
अपनी साइकिल से उतर,
मैने पूछा!
क्या आपकी कुछ हेल्प कर दूं?
ये तीसरी बोरी जो नीचे पड़ी है,
तुम्हारी साइकिल की सीट पर रख दूं।
वो हंसने लगा,
अपनी नजर नीची करने लगा।
यह जानते हुए भी की
उसे नीचे पड़ी बोरी
को रखने के लिए
मेरी सख्त जरूरत है।
थोड़ी ना नुकुर करने लगा।
स्थिति देख,
मैं वो बालू भरी बोरी
साइकिल की सीट पर रख
वहां से चलने लगा।
अब इस बोरी को
बैठने वाली सीट पर रख
कुल जमा तीन बोरी एक बाल्टी
का वजन,
पुरानी टूटी साइकिल पर लाद
वाह! जिंदगी, क्या खुश
और पूरी थी।
सच कहूं,
अब तो कैसे भी,
सब लादे फांदे
उस जिंदगी को
वो ही जाने
आगे बढ़ने की कितनी खुशी
और
कितनी मजबूरी थी।
देखता रहा,
इतना भार ले, ये जिंदगी
कैसे चलेगी,
कितनी दूर तक चलेगी,
मैं, निराश था।
पर जिंदगी
आशा ही नहीं
पूरे विश्वास से लबरेज
देखते ही देखते
आगे बढ़ने लगी।
अहा! यह जिंदगी ही है
जो, कैसे भी,
कहीं भी, कितना भी,
किसी हाल में भी
उम्मीद से ज्यादा
वजन लाद कर
खुश होकर
चल सकती है
यह मैने उसी दिन देखा।
साइकिल थोड़ी सी
झुकी उसकी ओर,
वह साइकिल से थोड़ा दूर
होकर झुका साइकिल की ओर।
दोनो तिरछे हो
एक दूसरे को
दबाते, सहारा देते आगे बढ़ने लगे।
"भार ही जीवन को हिम्मत और गति देता है"
प्रायोगिक रूप से अपनी आंखों
उसी दिन रियली मैंने यह देखा है।
बस इतनी सी बात होती,
तो इसे मैं नहीं लिखता।
आपका कीमती समय
कभी जाया नहीं करता।
भाई जिंदगी सचमुच
लाजवाब है,
जरा पास आके, तो देखो,
कैसा
खिलता महकता गुलाब है।
कांटे होंगे,
आसपास
परवाह
कौन करे,
अरे जो
इसमें न जले,
वो क्या
खाक जिए ।
चलो आगे बढ़ते है,
साथ उसके चल के
उसके मैजिकल
घर पर पहुंचते हैं।
घर!
घर कम, मेला था,
आदमी और पशुओं का
मिला जुला तबेला था।
लड़के सात, पांच लड़कियां
उसकी दूनी गाय,
बहू, बहुरिया पोता, नाती
कैसहूं घर न समाय।
बाछी, बछवा, पंडिया, पंडवा
मोसे गिना न जाय
काली काली भैंस दसन गो
खाय पीय पगुराय।
"जिंदगी यहीं थी,
सचमुच
पट उघाड़े, मेरे सामने
खड़ी थी।"
सबकुछ देखता मैं
अवाक था,
इतनों की जिम्मेदारी लिए वह
कैसी "मुक्त हंसी" हंसा था,
वैसी "विमुग्ध करने वाली उन्मुक्त हंसी"
हंसने को कौन कहे,
मैने कभी कल्पना में भी
नहीं, सोचा था,
सपने में भी नहीं देखा था।
बस इतना ही कहूंगा, यारों
"जिंदगी कभी भार से भारी नहीं होती,
हमेशा हमारी सोच, दुश्चिंता, और
भय से ही भारी रहती है।"
कल की विशेष प्लानिंग आज को खा जाती है
आज को जी लो, नहीं तो उसे चिंता खा जाती है।
जय प्रकाश मिश्र
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