सौंदर्य क्या है!
दिल में आता है,
पकड़ लूं!
भागते
सौंदर्य को
इस!
जो बिकसता
नित्य ही
नीलिमा के छत्र में इस!
चमचमाती
तारिकाओं बीच,...
खुशनुमा सा...
चांद, यह
रोज खिलता..
छत पे मेरे
रात को,.. हो
तरुण.., शीतल..
अमित सुंदर!
पर क्या करूं!
वो दूर है!
मेरी पंहुच से…दूर.. है!
तब, मन
ये कहता, पकड़ लूं,
चमकती कोई तारिका ही,
खेल लूं! बस खेल लूं!
संग उसके खेल लूं।
जिंदगी के शेष क्षण,
हां जिंदगी के शेष क्षण।
खेल भी क्या खेल है!
बस मिटानी “ रेख है”
जो नहीं है वास्तव में, ही कहीं पर!
खोज कर उस मीड़ को
जो कोर पर ही दब गई थी
बहुत पहले! ही कहीं, इस जिंदगी की
खोज कर उस मीड को ही
ठीक करना खेल था यह।
तो छोड़ दूं!
उस चांद को!
जो दूध में धुल,
दूध सा ही हो गया है!
झिलमिलाता,
खो गया है,
काले उजले
उन घुमड़ते
बादलों में सो गया है।
क्या छुपा सौंदर्य में है!
क्यों बांधता
इतना हमें यह!
सोचता हूं!
प्रफुल्लता! इसमें छुपी है?
हां प्रफुल्लता !
हर ओर इसमें
झांकती है!,
एक भरापन,
पूर्णता का भास
इसमें दीखता है।
क्या यही सौंदर्य है.
जो मन सभी का बांधता है।
देख तो सौंदर्य में
औदार्य अंग अंग
गदरता है!
वो मधुरिमा की लालिमा!
जो स्वास्थ्य से ही,
उभरती है!
छिटकती है,
रंग बनकर संग में
हर व्यक्ति के।
क्या! यही सौंदर्य है, में सोचता हूं।
रूप रेखाएं लिए
अनुकूलता से पूर्ण,
मन की।
अंग सौष्ठव
दिव्यता का बोध देते
बांधते जो
मन सभी के।
क्या वही सौंदर्य है!
जो बांधता है हर किसी को,
सोचता हूं।
सौंदर्य में क्या खुशी भी है...!
हां! खुशी,
सचमुच छलकती !
अंतरों में गहवरों से।
एक बुलावा
मौन का
लुक-झुक मुखरता,
प्रस्फुटन तक
बस निकलता,
खिलती कली सा
बांधता है नेत्र सबके।
क्या यही सौंदर्य है,
सोचता हूं, बैठकर मैं।
एक बुलावा
रूप से,
रंग, ढंग बदलते
अंग से,
स्निग्धता के
अंश से,
औदार्यता के
संग से,
मुक्त प्रसरित
गंध से,
लोलता
संतुलन से,
नेत्र के
आचरण से,
जो आनंद रस
बन छलकता है।
क्या यही सौंदर्य है।
मैं सोचता हूं।
एक ऊर्जा
झुरकती है
मन में अपने,
तन में अपने
देखकर
कुछ मधुर सा,
आभास लेकर
उभरती है,
सकल जग जिसमे
बंधा है।
सकल जग जिससे
बना है।
क्या वही सौंदर्य है।
मैं सोचता हूं।
क्यों मुदित
होती
हरित द्युति
दूब की
वह देख
अपनी धेनु!
मन चंचल लिए
क्यों मचलती है,
बिना कुछ खाए पिए!
बस देख।
भंगिमा यह रूप की
मैं देखकर हैरान हूं!
छूती हृदय है!
लालसा उठ उठ
इधर विश्राम पाती!
पेंग भरकर
उड़ रहा मन
संग इसके।
सरलता इसकी मुझे है
चूम जाती।
क्या यही सौंदर्य है।
कुछ बोल तो!
सौंदर्य क्या है!
पुत्र है! आकांक्षा का।
शील की संपन्नता है!
ताज़गी की व्याप्ति है!
अंतर में अपने रेंगती जो
धीरे धीरे!
सौंदर्य क्या है?
चेतना जो बांध लेता,
मनुज का पग बांध लेता,
कुशल अकुशल
एक सा यह वश में करता
घूमता है,
हर नगर, हर गांव में,
एक सा हर समय में।
सौंदर्य क्या है,
वृद्धि करता
जो
शक्ति की
भीतर हमारे!
फैल जाता
अंतःकरण में दूर तक,
पाग लेता
भावना को संग अपने!
जीवनी का रस
ही बन कर
टपकता है हृदय में।
सौंदर्य क्या है? कुछ बोल तो!
हारे हुए
हम चाहते
सानिध्य इसका!
जीत ले
हमको ये
संग में वास दे!
राज हम पर
यह करे हम चाहते हैं।
क्या यही सौंदर्य है ?
घेर कर चांहुओर स्थित
इस धरा पर,
ऊपर नभों में,
जल में,
थल में, जंगलों में।
कौन सी है जगह
जहां नहीं बिखरा पड़ा है।
कुछ बोल तो!
चमकती ये तारिकाएं,
चांद यह,
नीलिमा का
यह चमकता छत्र जो,
हरित द्युति यह
वनस्पति की,
रंग गुलाबी
लाल पीले शुभ्र
सारे फूल के।
द्युति बदलते
अरुण के संग
श्रेणियां ये बर्फ की,
"चांदनी चेहरे पे
चिपकाती नदी यह
रात में है
झिलमिलाती
वक्ष पर ले चांद को जो....
क्या वही... सौंदर्य है!"
बोल तो!
सब बांटते सौंदर्य
हैं, प्रत्येक क्षण
अदभुत निरंतर देखता हूं
'सौंदर्य को में बांध लूं '
यह सोचता हू।
सौंदर्य क्यों है !
फूल में, इन पत्तियों में,
दूब में,
इस धूप में,
पक्षियों में,
तितलियों में,
नाग नागिन नृत्य में,
सारे चराचर मध्य
यह क्यों फैला हुआ है!
मन चित्त को
क्यों बाधता है.
ध्यान को मेरे समाकर
संग अपने मुफ्त में,
आनंद क्यों है
बांटता यह।
क्या चाहता? सौंदर्य है।
खिल रहा जो
डालियों पर
पास में,
मेरे पार्क में,
सोचता हूं
भीग जाऊं
सावनी के उस गुलाबी
फूल सा बरसात में,
खिल रहा है
फुनगियों पर दूर की
उस डाल पर।
सोचता हूं
सुंदर गुलाबी मन लिए,
एक बार लहरूं,
मस्त झोंको संग,
झर उठूं
बाउगन बिलिया के
सूखे झर रहे
उस लाल रक्तिम फूल सा।
पर क्या करूं !
सौंदर्य सरिता
उषश की है डूब जाती
प्रात के उस उदय होते
अरुण में।
ओ सखा मन,
चित्त के !
तुम
पास आओ;
मैं तृषित
सी ही धरा हूं
कुछ नया
मुझमें उगाओ।
योग्यतम हो,
काल का संधान
करना जानता हो।
है यही बस लक्ष्य
इस सौंदर्य का
नूतन रहे बस यह धरा
नूतन रहे बस यह धरा।
मैं सोचता हूं।
जय प्रकाश मिश्र
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