आह्लाद से भर नाचती है।

कौन है, वह! 

विकट बन की 

स्वामिनी!

छिप देखती है!

दूर से इन घाटियों को!

घंटियां बजती है जब 

गोवंश के इन कंठ में

आह्लाद से भर 

नाचती है, नाचती वो।

वन देवी जो सघन जंगलों में निवास करती है और वन, पर्वत, घाटियों में सौंदर्य बन कर सदैव अपनी उपस्थिति दिखाती रहती है। हमारे दुधारू पशु, गाय, भेंड या बकरियां जब इनमे घास चरने जाती हैं तो इनके गले में बंधे घंटियों की रून झुन सुन कर खुश हो नाचने लगती है।

अरण्याणी नाम सुनकर 

सोचता हूं, 

छोर जंगल का 

मैं खुश

हो देखता हूं।

दूर है, 

अति दूर है, 

पर, आस है।

शायद उसी में 

इन देवि का भी निवास है।

हमारे वन हमारे सुंदर भविष्य की आशा है। बेशक हमसे दूर हैं पर अपना प्रतिदान ऑक्सीजन, और नमी, वर्षा जल अनेक तरह हमे देते हैं।

गिर रहा है 

पेड़ कोई

छोर पर 

कुछ इस तरह,

काट खाया भेड़ियों ने

भागते मृग को कहीं पर

जिस तरह।

सोचता हूं !

कौन है?

जिसने गिराया!

उस जगह 

उस पेड़ को!

जब हम कोई भी वृक्ष जो हरा भरा है उसे काटते हैं यह वैसे ही है जैसे कोई भेड़ियों का दल निरीह मृगों को बध करता है। ऐसा करने से यह बनदेवी करुण चीत्कार दुख से करती है, पर मनुष्यों का हित उसका ध्येय है अतः चुप हो हमे अपना श्राप नहीं देती।

हैं हरी 

सब पत्तियां,

रक्त कितना लाल 

ताजा वह रहा है!

चीखती है! 

देवि हा! 

पर,

फंस गई है, 

चीख उसकी, 

गले उसके।

क्या कहे, 

चुप हो गई है,

देखकर;

जो कर रहा है 

खून उसका, 

वह, वही है,

“लाल उसका”, 

जिसके लिए वह 

इस हाल में भी 

जी रही है।

जैसे मां पिता बच्चे से परेशान हो कुछ उनके विरुद्ध नहीं करते और अपनी संपदा को उन्हे मजबूरी में अप्रसन्नता से ही देते है जो उनके लिए अनेक ...... पैदा करती भी है। वैसे ही यह देवी प्रश्यश्चित से भर उठती है।

सोचती है 

हाथ रख कर

सिर के ऊपर, 

क्या करूं, 

किससे बचूं,

हिंसक पशू से निविड बन में

या बच्चों से अपने 

इन सभ्य होते मानवों से।


रो रही थी, 

सोच कर यह 

सुबुकती वह,

क्या करूंगी, फल का अपने, 

पक रहे जो तन पे मेरे।

उस वन संपदा का क्या करूंगी

पल रहा जो गर्भ मेरे।


सोचती… 

सिसकियां 

वह 

भरने लगी,

महकते मृग, दौड़ते है, 

खेलते हैं, घर में मेरे

कस्तूरी भरे; 

उन शावको का 

क्या करूंगी।

फिर सोचती… 

“वह” 

फूट कर रोने लगी

कहने लगी, 

सौंदर्य मेरा 

पेड़ हैं,

ये पेड़, 

मेरी देह हैं

मैं स्वर्ग की पुत्री 

यहां

तेरे प्रेम में ही 

आई थी,

मैं अरण्या 

साथ में 

वरदान 

अपना लाई थी।


“बिन पानी, 

बिन जोते बोए, 

बिनहि प्रयास किए,

फैलूंगी तेरे लिए 

जीवन ज्योति लिए।”

तब सोचती थी,

जब कभी संसार में 

कोई कष्ट होगा

आ खड़ा मेरे पास 

मेरा पुत्र होगा।

तब भरण पोषण 

स्वयं

उसका करूंगी

देवि हूं, 

पर कष्ट में 

मैं 

मां 

स्वयं उसकी बनूंगी।

पाल लूंगी बच्चो को अपने

शीतल घनी छाया के नीचे

अपनी स्वार्थपरता के चलते 

चाहे गिरें वो कितने नीचे।

इसलिए कहता हूं,

मत करें हम कुपित उसको देवि है,

रक्षा करें हर पेड़ की हम यही तो संदेश है।


जय प्रकाश मिश्र




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