तेरे मुंह से नहीं, आंखों से दुआ झरती है।
मैं सुन रहा हूं, कोई बोल रहा है:
तभी तो कहता हूं, तूं मां है मेरी:
तेरे मुंह से नहीं,
आंखों से
दुआ झरती है।
प्यार इतना
की नजरों से
छलक पड़ता है।
तेरे हाथों की छुअन
मेरे दिल में उतर आती है,
ऐ मां,
तूं क्या है
मैं तुझे देख
सितारों में चला जाता हूं।
मां सरस्वती को नमन
बैठी चुपचाप
विधाता के साथ,
नम्रता मूर्ति!
कलाओं में सिमटी।
कलाओं का संसार
वह कैसे छोड़े,
व्याप्त संसार की
हर सीढ़ियों में
अकेले अकेले।
वह क्या करे!
कोई इस पार,
तो कोई उस पार!
निष्पाप मधुर
चितवन लिए
किसी एक के लिए
नहीं
सभी के लिए,
सौभाग्य ले खड़ी
करती रहती है
लंबा इंतजार तुम्हारे लिए।
निष्कलुष नेत्र
झपकते कहां हैं
प्रतीक्षा लंबी पर शांत
थिर बैठे हैं दोनों।
कोमल शुभ्र ममता मूर्ति
धवला,
अपलक निहारती राह,
राह में बैठी अचला।
देने को अविकल!
लिए दुनियां के
श्रेष्ठ सारे वर।
नहीं चाहिए हमें
तुम्हारा, कुछ भी
देखता नभ नील को
विकच आंखों से गुजर गया
वह, कोई बेचारा।
दुर्भाग्य का मारा।
आशीर्वाद हुआ,
मां का हाथ दिखा।।
मिल गया।
जितना तुझे चाहिए ले।
नहीं बोलूंगी,
तेरी लालसा देखी है,
अच्छा खराब
जो तुझे जंचे,
वो मिले।
मां झुक जाती है,
बच्चे के दिल से
सोचती है,
विवेक आएगा एक दिन
अभागा सोचेगा,
अपनी मूर्खता पर
खिलौने खेल कर
रख देगा,
भूलेगा
सबकुछ।
मचलता है देख
जिसको
रह नहीं पाता,
क्या क्या मनौती नहीं मनाता
उसके लिए।
भीतर से चाह
ऊपर से नहीं नहीं की रट,
सोचता है
कह नहीं पाता,
विचारती है मां
ले बजा झुनझुना
फिर मत कहना
मैने तो नहीं पाया।
धन्य है तूं,
तेरी शक्ति,
तेरा राजपाट
भरा है सबकुछ
जो, जिसे, जब चाहे दे दे।
हाथ उसका
खुला
देने को,
मैं समझा
कुछ लेने को,
बड़ा दिल किया,
नहीं मांगूंगा,
लूंगा भी नहीं कुछ
जो देना है
वही दे,
पर वह मुझे जानती है
आखिर मां जो है मेरी।
नहीं देखा जाता
बेटे का रोना,
सुस्त रहना
मैं खुश हो गया,
देखता हूं अचानक
सामने की नदी पानी से भर गई।
मेरी तो सारी दुनियां ही हरी हो गई।
मछली उछली,
पकड़ भी ली है मैने
पर उसने
उसे मारने से बचा लिया,
मैं पाप से उबरा
मछली जान से उबरी।
तीनो खुश,
मैं,
मछली
और मां।
उत्सव यही तो है।
कोई पकड़ कर,
कोई पकड़ा कर।
कोई किसी को छोड़ कर
कोई किसी से छुड़ा कर।
कोई अपनी कारीगरी
की सफलता पर,
देखो न मुस्कुरा कर।
कोई तो अपनी मूर्खता पर
भी हंसता हुआ पर
कुछ दूर जाकर।
जय प्रकाश मिश्र
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