मनुष्यता पंकिल हुई !
मनुष्यता पंकिल हुई !
आज की यह प्रगति,
पूंजीवाद के चौपाए पर
थिरकती,
लोगो की जरूरी
जरूरत से बेखबर,
सब कुछ नजरंदाज करती।
अपनी....,
बस अपनी, ही धुन में
दौड़ती.... बिना ब्रेक
रातदिन.... अनवरत!
दबाती..., धकेलती....,
लोगों को....,
पुचकार... पुचकार कर,
'बोरों' को
'झोलों में' भरती।
क्षैतिज बसावट को
ऊंची बहुमंजिलो में बदलती।
अनेकानेक के हिस्सों को
चूसती, कूटती, पिसती,
घोल घोल कर पीती।
बेखबर, बेखौफ,
नियति के शाश्वत
न्याय की जानबूझकर
खिल्लियां उड़ाती।
अगाध सुविधा,
विलास, प्रमोद की अपनी
नियमावली में मदमग्न।
आखिर!
दबाव सहने की भी तो
एक सीमा होगी!
कोई तो सोचो।
गुब्बारे के फूलकर
फटने, फूटने से पहले।
क्यों कि
गुब्बारे के फूटने से,
क्या केवल गुब्बारे को ही
नुकसान होगा।
सोचो, विचारो !
‘बम’ तो खुद में फूटता है,
तो फिर लोग
क्यों मरते हैं ..!
नहीं उसके भीतर का दबाव
और सामान बाहर ही तो आयेगा।
सोचो,
कुछ लोग ही सही,
ये पूंजीवाद, भयानक
जहर का गुब्बारा है।
दबाव हर जगह,
हर समय, हर किसी में,
हर संभव सीमा तक भरा रहे
यही तो है ये।
इकठ्ठा करना,
और इकठ्ठा करना।
औरों को साम, दाम, भेद, से
बिलकुल शून्य कर देना;
यही तो होगा अंत इसका।
अरे भाई, पिरामिड माडल का रूप,
यह पूंजीवाद का बिजनेस
कब तक चलेगा।
इसका बढ़ते जाना ही,
इसकी ऊंचाई ही
इसको ऊपर से गिराकर
एक दिन चूर्ण करेगी।
बलि का बकरा
जब भूख, प्यास, सोच, ग्लानि,
दुख, अशांति, से व्याकुल होगा
तब क्या होगा।
शक्ति सेनाओं में कभी नही होती
यह तो दुर्बल कमजोर पीड़ित निराश्रित
विकल्पशून्य लोगों में गमन करती है।
निरंकुशता की तलवारे
लहू से शांत हो जाएंगी।
पर ये तृषित, दुखित, व्यथित,
थकित, जर्जरित, शोषित स्थिति
कैसे शांत होंगी।
बड़े लोगों! बड़ा दिल करो!
क्षमा की शक्ति को अपनाओ!
अज्ञानी, मूढ़, मानसिक दबाव
वालों को पनाह दो।
तुममें अग्नि की शक्ति है,
तप है, बुद्धि है,
मानवता को पकड़ो,
वह जाति, धर्म, बदला, दुख,
अपनो के प्यार से भी बड़ी है।
रोको, रुको, क्रोध भयंकर पाप है,
इसकी अग्नि सबको
स्वयं के साथ, भस्म कर लेगी;
तुम पवित्र अग्नि के पोषक हो।
इसलिए अपने संयम, विवेक
और मनन का आश्रय लो।
अगर तुम नहीं माने तो
आखिरी विकल्प, ध्वंस के बाद
जब सब शांत होगा
तो कालिमा सदा के लिए
किसके मुंह पर रहे ?
तुम क्या चाहोगे !
हे दुनियां के मनुष्यों! रोओ!
आज तुम अपने
अंतस आधार को
कलंकित कर रहे हो।
उन नासमझ बच्चों,
उनके कोमल हृदयों,
उनकी जरूरतों को
एक बार सोचो।
उनकी सही शिक्षा के अभाव में
होने वाले अंधे विप्लव,
की छाया से भय खाओ।
सांप के बच्चे को भी,
जो काल ही होंगे
क्या ऐसे मारा जाता है।
ये सारी दुनियां में फैले
असंतुष्ट बच्चे
हमारी करतूत की कहानी
के पात्र होंगे।
एक दिन हम नहीं
ये ही हमारे बाप होंगे।
मनुष्य से बड़ा क्या है,
'यहां' जरा सोचो,
अपने "रास्ते और नीयत को"
कुछ तो कोसो।
पश्चाताप इसका हल नहीं,
परिणाम होगा!
तुम्हारे सामने
उस दिन खड़ा, बड़ा तूफान होगा!
प्रलय में पापी हो या
पुन्यवान सभी डूबेंगे,
पहले झोपडियां होंगी
पर अंत में महल भी डूबेंगे।
इसलिए मनुष्यता ऊपर रखो
अपने को नीचे,
सब मिलजुल एक बनो ,
अच्छा करो,
इस तरह आंखें मत मीचो।
जय प्रकाश मिश्र
उत्कृष्ट रचना है सराहनीय कदम उठाए है आपने,
ReplyDeleteपढ़ने के लिए और कमेंट्स हेतु धन्यवाद।
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