वो कौन था, क्या ‘सब्र था’! मैं जानता नहीं।
मिट्टी है ये, मिट्टी ही थी
मिट्टी ही रहेगी,
सोचता हूं,
फिर भी इसी में,
कुछ फूल उगा लूं।
रंग चटक आए
गर, अगर,
तो अच्छी बात है,
ख्वाइश थी,
की, एक बार तो,
खुशबू से, नहा लूं।
वो कौन था,
क्या ‘सब्र था’!
मैं जानता नहीं।
“यातना” वीभत्स थी;
फिर भी, झुक कर निकल गई।
पछताती रही रात भर
आंसू निकाल कर
रो रो के पूछती है, अब
की क्या 'मैं'
बूढ़ी हो गई।
वो कौन था
पास, उसके
क्या.... था
वो तो खाली.... था,
हर... तरह....,
मौन में डूबा...,
शांति में पगा...
अपने में ही स्थिर...,
फिर क्यों अपना “ग्रेट-हीरो”
सामने उसके
‘इतना’ बौना....बना... खड़ा।
शौर्य, वीर, पराक्रम, शक्ति, उपलब्धि, संपदा,
सम्मान, यश, स्वास्थ्य
क्या क्या नहीं था
उसके पास,
'बस अपने
लिए सब'।
जीतना
जिंदगी में,
फहराना झंडे,
यही तो था उसका काम।
आंखों में मद, चाल में तीव्रता,
रहन सहन में अकड़, लोगो में पकड़
क्या, क्या नहीं था उस पर।
फिर, वह क्यों, झुक
गया, उसके
पैरों तक
पहुंच
गया।
जिस पर
कुछ भी तो
नहीं, बचा... था,
अब कुछ, खुद के लिए
और दूसरों को भी देने के लिए।
हां करुणा, प्रेम, स्नेह, निजता
अंग अंग से टपकती थी
न जाने कैसी अजीब
सी नमी उसकी
आंखों में
रहती
थी, की
सामने वाला
भरपूर भीग जाता था।
शायद उसी में, फिसल कर
वह उसके पैरों में भी गिर जाता था ।
जय प्रकाश मिश्र
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