प्रेम ही वह आदि है अस्तित्व है अवसान है।
'सूत्र' क्या संसार. के हैं,
बांधते... इसको बराबर,
सहज ही वे साथ अपने
आदि से अब तक निरंतर।
जीव, जड़ भीतर बसा जो
समय बन कर चल.. रहा है
बिखरते... हम.. जा रहे.. हैं
सूत्र में बंध बंध कर निरंतर।
पर सूत्र क्या है ?
एक धागा, थोड़ा लम्बा,
कुछ कणों का, साथ आकर,
मिल संभल, स्थान लेकर,
एक के संग एक मिलकर
शांति से, सद्भाव से
एक साथ रहकर,
संघ को अस्तित्व देना,
कुछ अलग एक साथ बंधकर
दूसरों को जोड़ने की
शक्ति का आधार बनना।
सूत्र ही है।
हां जोड़ना
किन्हीं अन्य को,
खुद जुड़ के रहना,
सूत्र ही है।
जोड़ना क्यों है जरूरी, देखते हैं।
जुड़ना, युजना
एक ही हो, ऐसा नहीं है।
"जोड़ना है, दबाव से, शक्ति से,
संगत-असंगत, स्वार्थ में वशीभूत होकर।
तात्कालिक लाभ की अंधता के साथ होकर।"
युज-ना स्वभाव है,
स्वाभाविकता है।
शक्ति या दबाव नहीं,
सहज प्रेम का प्रवाह है
हां यह प्राकृतिक सद्भाव है।
परिवार, मित्र, दायित्व
के सूत्र बनते हैं
इसी से।
संसार को बांधकर
रखते यही हैं।
संसार का मूल सूत्र
सहज प्रेम, है
करुणा, दया, परोपकार,
धर्म, भाईचारा आदि आदि,
सब उसी से निकलते हैं।
प्रेम आदि से है, अभी है,
अंत में भी होगा
सच है इसी से संसार
सदा सदा आगे बढ़ेगा।
जय प्रकाश मिश्र
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