पत्तियां हैं, भीगती कुछ शब्द खिलकर विहंसते हैं।
उमड़ते है,
समसते हैं,
टपकते,
घिर,
बरसते हैं,
जब ये बादल।
पवन रुक कर
जोहता… है,
बाट इनकी…..;
हो खड़ा चुपचाप!
एकटक विकल मन से,
ऊंघता है बैठ कर एकांत में
दंश रखकर बादलों से।
देखकर
नख-क्षत
कुमारी पत्तियों की
फुनगियों पर।
टप टप टपकते
बिंदु बन,
जल मधु
सहज ही
धार बनकर,
अंतरों में हैं समसते।
सिहर जाती.. कोंपले तब
ठंड का स्पर्श पाकर…
कांपती सी हिल रही…हैं।
पुष्प का सम्भार…
भारी… हो गया है
लचकती…,
असहज… होती
टहनियों पर।
फल लगी ये डालियां
स्थिर खड़ी है।
भार से भारित
लिए तन
कह रही हैं;
बदलियों से
थोड़ा रुक जा!
संभल जाऊं!
घड़ी एक, विश्राम पाऊं!
थक गई हूं!
हिलढुल ढुलकते
पुष्प पुच्छल संग लेकर
दोलते इन
नव फलों का
भार लेकर।
कड़कती तब
बिजुरियाँ
संघात करती
बदलियों संग
बादलों की पीठ पर
कितना भयानक!
तब कहीं, बादल बिकट
संहात पाकर, भागते हैं, गरजते है।
देखते ही देखते
भीगी धरा के होठ छूकर
छोड़ कर रस राग
अपना तुरत ऊपर।
पत्तियां हैं भीगती
कुछ शब्द खिलकर विहंसते हैं।
कितना भरा है भाव
कितना जल भरा है बादलों में।
ना पता है बादलॉ को
न पता है शब्द को इस।
जय प्रकाश मिश्र
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