ढाक के तीन पात
वह उड़ा…., उड़ सकता था,
जितना… उतना…
पंख ही तो थे,
उड़ा सकते थे…. कितना।
पंख उड़ा सकते थे
तन को ऊपर, ‘सीमा तक’।
पर वह तो
मन से, उड़ा,
मन, भर उड़ा,
अपने ‘सोच की
सीमा तक’ उड़ा।
देखिए न!
असीमित से दिखते
संसार में,
सब कुछ... कितना
‘सीमित’ है यहां।
उड़ान तन की हो या मन की
सीमा होती ही है।
वहां जाकर हर कोई
‘थक’ जाता है।
या तो तन से,
तन से नहीं,
तो मन से
मन से नहीं,
तो पंख रूपी साधन से।
शरीर ही तो साधन है,
हम सभी का, तन और मन की
हर संभव उड़ानो के लिए।
पर ‘कीलित है समय कील से’
अपनी पुरानी ‘मजबूरी’ लिए।
हर उड़ान जमीं से दूर
ऊंचे आसमान में होती है,
अपनो से, सभी से, बहुत.. दूर..
नितांत एकांतों में होती है।
जैसे जैसे उड़ान, ऊपर होती जाती है
खुद तो जैसे उड़े थे, वैसे ही रहते हैं,
पर नीचे के लोग और संसार
‘छोटे.., और.. छोटे’ होते जाते हैं।
हां, नीचे के लोग,
दिखते तो हैं, उतने ऊपर से,
उड़ने वाले की, आंखे भी, वही रहतीं हैं,
पर थोड़ा ऊपर उड़ने के बाद,
लोगो की ही नहीं, अपनो की भी
दीन-ओ-ईमान, जिंदगी और संस्कृती
घटिया लगने लगती हैं।
ये होता ही है, ऊपर जाने से,
नजरिया थोड़ा बड़ा हो जाता है न !
पर नजर की गहराई, घट जाती है;
पुराने संबंध, छिछले लगते हैं,
रिश्तों की परछाईं, हट जाती हैं।
जीवन जीने के लिए
पक्षी हो या मानव
उड़ान तो सभी भरते है,
कुछ जीने के लिए उड़ते हैं,
कुछ उड़ने के लिए ही, उड़ते हैं।
जीने के लिए उड़ने वाले
नियम से नीचे उतरते हैं, जमीं पर भी
कुछ कदम चलते हैं।
क्योंकि वे जानते हैं
"आकाश"
असली ठिकाना नहीं
'जमीं' ही है।
वे सबके साथ मेल मिलाप
सुकून से रहते हैं।
पर जो केवल
ऊंचे.. और.. ऊंचे.. ही उड़ते रहते हैं
अंतिम... सीमा तक उड़ने के बाद
जब नीचे.. उतरते हैं ….
अपनी पहचान ही खो देते है,
ढाक के तीन पात चरितार्थ कर
गहरे प्रायश्चित में ही जीते हैं।
गहरे प्रायश्चित में ही जीते हैं।
जय प्रकाश मिश्र
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