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Showing posts from October, 2024

बीच में वह नयन शुष्का श्यामली! धीरज भरे कुछ देखती थी..

क्या चहक है,  रंग है! उत्साह.. है!  लग रहा.. है, सच! कोई त्योहार.. है, कुछ.. घुल.. गया है, फिजां में…  हरओर… देखो!   मन सभी का उत्स-ए-सरोबार है। क्या हुआ है?   धुल गई हैं, हर दिशाएं!  आकाश फिर से  नमी भर कर आ गया है। आ गईं है बालियां फसलों में फिर से… मेहनतकशों का दिल उछलता जा रहा है। पर्व है यह, दीप का, पर्व है समृद्धि का पर्व है यह, संक्रमण का, प्रगति का,  पर्व है उत्थान का। पर्व है यह, वापसी के, राम का  पर्व है मिष्ठान्न का। पर्व है यह प्रकृति का भी देख तो! कुछ इसलिए स्नान कर, यह  प्रकृति खुश.. है,  कुछ इसलिए ही स्वच्छ हैं, सारी दिशाएं। कुछ इसलिए ही  बालकों का मन भी खुश है, कुछ इसलिए ही लोग खुश हैं,  राम आए आज के दिन  बहुत पहले, लौटकर थे अयोध्या में । आज मुंह, मीठा ही होगा, हर किसी का आज मन फिर खिल उठेगा  हर किसी का आज दीपो से भरी  यह शाम होगी आज लक्ष्मी हर किसी के  धाम होंगी। आदमी है.., संग इसके…,  बहुत लंबी संस्कृति.. है, खुश हुआ.. जब, जब  बजाकर  तालियों को   आवा...

दीपावली शुभ हो, नगर वासियों दीपावली शुभ हो!

दीपावली है, कच्ची मिट्टी के दीप के बिना पूरी नहीं होगी। उन्हें बेचने गांव से लोग इस जाड़ा में पैसा खर्च कर, कुछ न्यूनतम खाने पीने की चीजे लादे बूढ़े मां पिता छोटे बच्चों को किसी के हवाले कर शहर में उम्मीद लिए आए है। न रहने को निश्चित जगह, न शौच स्नान की कोई व्यवस्था और ऊपर से पुलिस व निगमों की वसूली की दुकान लगाए हैं। जो सामान नहीं बिका सब कैसे ले जाएं भाड़ा मंहगा होगा सोच सब छोड़ प्रभु राम के गुन गाते और इस तरह दिवाली मनाते जा रहे हैं। इसी पर यह कविता पढ़ें। दीपावली.. है,  खुशियां बड़ी... हैं, जानता हूं, देख कर अभिभूत हूं!  पर! राज सारे जानता हूं,  इसलिए,  कुछ सोचने पर  आज भी मजबूर हूं!  देखता हूं,  सड़क पर वह, चार दिन से..  आ जमे... हैं,  छोड़ कर घर बार, बंधु,  लाद कर लारी पे सबकुछ..  मिट्टियों के बर्तनों को, दीपकों को बोरियों में अधपकी, कुछ पक चुकी सी  आकृति को, लादे फांदें.. रंग रोगन.. साथ लेकर खुले ही, आकाश नीचे,  माह अक्टूबर में, कैसे  बोरियों में लिपटे, सिमटे...रात भर!  ठंड में, ये मरते खपते.. बिनु किछु व्...

क्या सार है सुषमामयी इस शाम का!

पुष्प प्रथम: आभामय दीपों भरी शाम क्या सार है इस इंद्रधनुषी पुष्प का?   क्या सार है इस चित्त खिंचते रूप का?   क्या सार है सुषमामयी.. आभामयी..  इस शाम का?  पूछते हैं आप!  तो फिर मैं बताऊं?  थोड़ा सुनें बस आप,  यह तो!  निवेदन.. हैं,  मौन का..  !  सौंदर्य.. के संभार का  साभार..  आग्रह..!   कह रहा वह.. थोड़ा.. रुको!   एक बार देखो, ध्यान से,  उसकी तरफ धीमा.. चलो!   वो देख.. पाए!  कौन हो.. तुम!  समझ पाए, मर्म.. तेरा!  यदि उचित हो,  पास आए..  नहीं तो.. वह दूर.. तुमसे  छुप छुपाए।  वह यहां.., तुमसे मिला था याद आए,  स्मृति में..नित्य तेरे.. कुछ नहीं तो.., कल्पना में  ही लुभाए! जिंदगी भर!  कुछ सरस तुममें जगाए!  जिंदगी भर!  और क्या है रूप सुंदर!  यदि जानते हैं आप कुछ इससे अलग  तो  मुझको बताएँ!  जय प्रकाश मिश्र पुष्प द्वितीय: कर्म सारे बंधनों से मुक्त है  तूं कर्म से क्यों भागता है!  सच, क्या!  कर्म तुझक...

ऐ, जिंदगी! क्या लिया तुझसे है मैने,आज तक!

ऐ, जिंदगी!   क्या लिया, तुझसे.. है मैने.., आज तक..!  इस उम्र तक!   कुछ तो बता? मैं पूछता हूं!  याद कर कर! थक गया हूं!  दौड़ अंधी... !   दौड़ कर, सच, थक गया हूं। पास आई थी क्यूं, मेरे?  साथ लाई क्यों थी, अपने?  मैं तो खुश था, रात की तन्हाइयों में!  चिर शांति में, उस अतल तल की.. रसवती.. गहराइयों.. में!  क्या दिया है?   तूने, मुझको!  आज तक! तूं ही बता!  आ बैठ मेरे पास,  कुछ तो बात कर!  मैं अकेला पड़ गया हूं!   दौड़ कर!  कौन सा वह काम था....  खींच लाई.. थी,  मुझे तुम यहां पर!  सोच कर हैरान हूं!  क्या वह नियंता!   व्यर्थ ही जीवन सजाता,  इस धरा पर!  पूछता हूं...? मस्तिष्क का यह खेल  कैसा वह रचाता, है धरा पर। लोग पागल... हो गए हैं, रास्तों से हट.. गए हैं छोड़ मानव धर्म!  देखो! धर्म कितने... बन गए है!  लड़ रहे हैं, जान ले!   एक दूसरे की.... पर हंस रहे हैं, छोड़ कर इंसानियत की बात  सारे....  देख तो कट्टर हुए हैं।...

एक चादर डाल ही दूं, नेह की शीतल नरम..

सोचता हूं!  एक चादर डाल ही दूं,  नेह की.. शीतल नरम.. फैल जाए जो परिधि के, अंत तक, तपते हुए.. इस,  हृदय ऊपर। तप्त है  जो  तिमिर में..  अज्ञान के निज,  कसकता है, रात-दिन,  दिन-दोपहर, हर.. अहसास..  ले,  ले.. सुलगता है, छीजता है, खीझ कर, बीते दिनों की याद कर, कर, बरसता है नेत्र से अविरल विकल। तरलता  की चांदनी,  शीतल मधुर,  इस पर बिछा दूं,  सोचता… हूं, प्यार से एक दीप धर दूं,  प्रेम का स्नेह भर, कुछ इस तरह… तिमिर जो.. अज्ञान का… घेरे खड़ा हर ओर.. इसको, उसको हटा दूं। पर! यह  तप्त है!  अभिशप्त है!   सांसारिक वासना में व्यस्त है!  भोगने को कष्ट, क्यों एक बार यह!  देखता हूँ सोचकर!  शतबार को अभिशप्त है। जय प्रकाश मिश्र भाव: संसार में साधु पुरुष, संत, फकीर सांसारिक लोगों के, कष्ट देख अनेक बार द्रवित हो जाते हैं और अपने संचित कर्मों के, तप के पुण्य का प्रयोग कर उन्हें परिशांत करने का, लाभ देने का प्रयास करते हैं। परंतु अपने कर्म और आदतों के चलते वे पुनः दुखी ही हो जाते है। अतः हमें साधु सं...

ईश्वर से मेरी मुलाकात हुई कुछ बात हुई।

मैने पूछा उनसे,  मिल गये एक दिन इधर ही,  रस्ते चलते!  क्या आप भी! बिक गए? यूं ही!  सरे राह ऐसे वैसे?  फूल, माला, प्रसादो, चढ़ावों से देखते देखते?  इन कुटिल लोगों की अजानों से   सजदा से, मुल्ला की कट्टर तकरीरें सुनते सुनते। वो तपाक से बोले,  क्या कभी अपनी भी देखी.. है,  हर चीज में चाहे स्वार्थ हो,  क्रोध जो, सहनशीलता हो,  व्यभिचार हो सभी में गिर गए हो  जानवर से भी नीचे। आखिर! मैं तुम्हारा ही तो ईश्वर हूं… आधार तुम ही तो हो मेरे!  इमारत कितनी भी ऊंची हो कितनी ही शानदार हो जब आधार ही, धंसता हो तो बताओ?  बेचारा शीर्ष उतना ऊंचा रहे कैसे। पहले  शीर्ष ही तो,  जमीं पर गिरता है. सोचो मैं तो.. किसी तरह, अपनी माया से  आज भी तुमसे ऊंचे, हवा में टंगा हूं। तुम्हारे सन्नाटे वाले, और जीर्ण-शीर्ण मंदिरों, मस्जिदों में आज भी  वैसे ही डटा हूं। बातें उनकी  फर्स्ट ऑर्डर में मुझे सही लगीं… अपने को, और आप पढ़ने वाले लोगों को, दोनों को खूब गहराई से आंका,  और चुपचाप पतली गली भागा। बस! एक बात  उनकी आज ...

लालिमा का लेश लेकर, बाहर झरोखे झांकते थे,

इक कली थी,  कुमुदिनी… की झील के…. दर्पण सरीखे  स्वच्छ, मुख पर….. अधर बन,  अधखिल-खिली थी।   लावण्य-मयि, सुषमा लिए, सुनसान में,  विस्तीर्ण, लहलह लहकते  जलराशि के संभार पर, कुछ अनोखा सोचती,  मदिर मन! वह, मंद ही  मुसका रही थी। हिल रही थी,  मधुर लय में बह रही थी पुरवाइयों के अंक में.. कंपकंपाती,  कुछ इस तरह  से डगमगाती...  साल भर की  बालिका सी पग रख रही थी। गर्दन सुराही से भी लंबी,  कुछ ज्यादा झुकी थी.. नाल पतली, पारदर्शी  के सिरे पर  खोलती निज वृन्त   वह नव्या कली थी,  अभी नलिनी नहीं थी। उम्र कच्ची,  भाव सच्चे, विमल, अच्छे मन में भरे, वह प्रात के  शुभ काल में, उगते अरुण के स्नेह में  उर से उमग, स्वागत प्रथम  नतमुखी हो, कर रही थी। मूक थी, चुप चुप खड़ी थी पर सरस थी,  नव्य थी, नय ले झुकी थी  राजहंसी सी धवल थी। बहती हवा संग, हिलडुलाती मुखरता की डोर थामे,  बात धीमे, बहुत धीमे,  कर रही थी। सूर्य की  पहली किरण  को देखकर, लाजवंती  पत्तियों सी सिकुड़ती...

स्वप्न कलेवर आभा ओढ़े, मन बिच फांस पड़ी री ऐसे,

हे मेरे छल!  तू आगे मैं पीछे, तेरा भास मुझे ले खींचे आऊं आंखे मींचे। भाव: सतरंगी इच्छाएं अपनी स्वप्निल आभामय चकाचौंध में हमे अंधे सी बना कर दौड़ाती हैं। स्वप्न कलेवर आभा ओढ़े मन बिच फांस पड़ी री ऐसे, दूरी सिमट गई हो जैसे तन परिमल में लिपटें। भाव:  माधुर्य और आशा की पिटारी में रखी चाहतें हमे सुख और मदिर आनंद की राह पर खींचती जाती हैं। हम उनमें लय होते जाते हैं। वे हमे सुगंध सी बांध लेती हैं। मिलि मिटि जाउं बूंद बनि तुम सँग, तन सिहरे मन भींजे।  भाव: कल्पनाशील और मधुमयी इच्छाए अपने साथ हमारा तन मन एक कर लेती हैं। अधर हिलत  जस महुआ टपके, रस बरसत नयनन से। हिय की हरष कइस कहि पाऊं, जस बछरू  उछरै, गौ थन से। भाव: जीवन में माधुर्य भाव और प्रफुल्लता दोनों एक दूसरे से सिक्कों के दोनों पहलू जैसे जुड़े हैं। सोचु मिलन कइसन यह होई, नद सागर मिलईं  स शत जनम से। इन्द्रिय सकल उलिझि तब जैहैं, बाति न निकसी मुखन से। भाव: आनंदातिरेक में इंद्रियों शिथिल हो जाती हैं और मन बुद्धि मूक हो जाती है। नयन दुऊ पाथर  हुई जैहैहि, बस मुसकनि बची अधर पे। छल की माया अइसी व्यापी तन के रहे न मन ...

खुशियां दें, उम्मीद-भरें, उनमें, जो टूट गए, थे कभी

पुष्प प्रथम: एक बार, जी.. लो। छोड़ो..  ये सब कुछ... जिससे, दुखता है, दिल!  चलो...,  हिलमिल!  कुछ और... करें, मिलजुल हमतुम..!  कुछ पेड़..  लगाएं, हट के..दुनियां से रंगीले,   खुशबू..भरे।  फैलाएं जो..केवल,  खुशियां ,  छाया और खुशुबू...  जन्नत.. की  फिर से...  अपनी इस, प्यारी धरती पे। चलो..  एक जश्न  मनाएं  फिर से, मिल, हम तुम!  कुछ  पेड़ लगाए थे कभी,  तुम  हम ने,  हंस हंस के  देखो, आए हैं.. कैसे अब झूम के खिलने,  भर भर आंगन खुद ही, अपने। चलो जश्न मनाएं फिर से, मिल  हम तुम। चलो.. छूएं इन्हें, हर  बार,   जब जब मन रीता-ए.. दुनियां से..  इन्हें सहलाएं, प्यार करें,  पर!  हल्के हंसे,  कहीं ये न डरें! हमसे। हंस लेना,  वैसे ही तुम, खुलके फिर एक बार, कभी,  जब फूल खिलें, अलमस्त सुर्ख, लाल लाल!  इनमें। चलो... थोड़ा मुस्कुराएं,  एक साथ!  अब जब, परों सी, नर्म पत्तियां  निकलें, इनमे इस माह!  गौर से देखें इन्हें !...

अनंतता, कितनी भी छोटी हो, पर है अनंतता

शायद कोई लड़ी आपको पसंद आ जाय:  लड़ियां:  फुल्ल पुष्पों की शीर्षक: दुनियां और रिश्ते (प्रथम) खत तेरे दे प्यारां पुत्तर लिक्खा है..,  पढ़ सक्के तो पढ़ लेंईआं थोड़ा आराम दे।  नूं जानूं, तूं कित्ता जान दे दे के, लगदा है दिन रात, जीतन वास्दे दुनियां.. ये,  तूं कित्ता..  प्रान दे दे के.. फ़िद्दा फित्ता.. है। म्हारी भी सुन..!   मैनूं ना.. चहिए! तेरे बिन.. कुछ!  अब आ, घर.. आज्जा,  देखन चाहूं, एक बार.. तुज्झे, नज़दीकाँ दे, इन बुझदी आंखन दे। प्यासा ना फेज… मुज्झे, मेरा दिल शर्मिंदीयां.. है। मैनू कीइनू पैदा.. किया, या रब!  बुलाने पे भी ना आइंदा है जो.. मेरे जाने का नखत होइंदा है। ओए, ए जग जीतने दे, की होइन्दा  जब, जग छोड़ के, ही  जाइंदा है, तुझ्झे भी मेरे नाल दिन एक। भाव: जिंदगी आज की, अरमानों की चाहत में अपनों से, और दिली रिश्तों से, दिनोदिन दूर होती जा रही है। एक सिक्ख अपने बेटे से कहता है कि जितनी भी दुनियां तूं चाहे जीत ले वह एक दिन छूट ही जाएगी। अपनों की मिठास का आनंद ले और अपनों को इसका आनंद दे। इसी के लिए अपने और परिवार होते ह...

कुछ यादें बीते बरसात की।

एक रुनझुन सी अजब  बजने लगी है कानों में, लगता है यहीं, कहीं, बूंदे  गिरने लगी हैं… पत्तों पे। ये कौन!   बजाता है…सितार!  ऐसा…  मेरे कानों में,  मचल उठी हैं,  सारी पत्तियां बूढ़े पेड़ की, इन शाखों पे। ये टपकती!  टप टप की टपकन, इक इक, समोए है मुझे,  घंटो से!  कौन... बैठा है! वहां चैन देता ही नहीं... अपनी, उन उंगलियों को। चढ़ के...  आता है कोई  घर पे मेरे बार बार.. ऐसे... क्यों!  आवाज! घुड़दौड़ की..  सुन,सुन के.. मैं हैरां हूं!  कहां गया वो मुसाफिर  जो उतरा होगा!  खोजता हूं हर बार, घर से बाहर..   परेशां होकर।  सब चुप हैं!  ये कौन है! जो बोलता है;  सारी आवाजों को  एक साथ निगल लेता है, कहां गए, वो लोग..  जो कहते थे, हम अभी जिंदा हैं, कोई एक!   आवाज-ए-जवाब देने को, तो हाजिर हो!  ये, बूंदें हैं,  रस हैं, आसमां… का,  समंदर से चल के आईं हैं,  पास मेरे..,छूती हैं मुझे,  भिगोती हैं मुझे, साथ अपने उनकी दरियादिली है ये या उनकी आशनाई है। एक पे...

फिर वहीं पहुंच गए, जहां से वे गांधी पैदा हुए।

देखा तो नहीं, सुना है, कोई गांधी था,  कभी आया था! यहां, इस धरा ऊपर। संयोग ही था, मिल गईं उनको टालस्टाय की कुछ बेहतरीन पुस्तकें,  पढ़ा नहीं पहन लिया, बातें उनकी;  माय मास्टर एंड मी…और भी। पुस्तकों में बोया बीज,  अंकुरित हुआ था,  लियो.. का,  गांधी  में,  कुछ  इस तरह,  अहिंसा ने जन्म लिया,  जड़ जमाई, भारत की धरती पर  फिर एक बार, गहराई से इसी धरा ऊपर। सत्याग्रह के  उजले कपड़ों में लिपटी,  असहयोग की श्याम रंगत लिए गांधी को उपकरण बना फैली यहीं  वहीं अहिंसा इस धरती ऊपर। खड़ी कर गया बहुतेरी  सूरतें अपने जैसी,  अनेक रूपों में  कहीं सफल मंडेला कहीं असफल लामा जैसी। वो बावला था,  दुनियां की रस्मो से बार बार बंधन तोड़े,  अपने ही बाल बच्चों से;  पर, रिवायत निभाई,  जिनका नमक खाया था, जान भी दे दी,  पर रिवायत निभाया था। वो जिंदा प्रयोगशाला था,  अहिंसा की; इस धरती पे। मूर्तियों में ही हों,  पर आज भी खडा हैं,  अपना संदेश लिए  उसी तरह, लाठी के बल पर नहीं लाठी पर टिकी भी नह...

दूर हैं…इस सभ्यता से, मुक्त हैं, हर कालिमा से।

वह मेरा ही,  घर.. है,  पूर्व का..., मै जानता हूं, पर, दूर हूं, ..अब.  इन  विहंगम घाटियों से!   पहचानता हूं!   घूमता था!  रात-दिन, दोपहर,  चढ़ इन बादलों...  ऊपर!  पकड़ पर,  (पंख) निरखता था।  देखता था, धूप छाया खेल,  सच वह प्रकृति-मानव मेल। कैसे! रुनझुन उतरती, ....धूप,  रखती पांव, धीमे…खूब,  घाटियों की तलहटी में। डरी सहमी...!   नन्हीं बालिका सी,  किंचित भटकती... किंचित सशंकित.. प्यार से छू भूमि, वह कृत कृत्य होती। घने पेड़ों बीच, रुक!   विश्राम करती,  पल एक वह.. खेलती, कुछ देर!  संग, उन बालकों के,  गंधर्व शिशु, जो परम पावन,  दुग्ध सरिता सदृश जल से  खेलते हैं, खेल मिल एक दूसरे के।  साथ में,  हाथों में ले ले हाथ,  नचते, कूदते हैं। प्रेम में ये लिपटते हैं,  विश्वास संग ये पल रहे।  दूर हैं… इस सभ्यता से,  मुक्त हैं… हर कालिमा से। मुक्त हैं, हर लालसा… से, मस्त हैं। प्रकृति की ही गोद में ये पल रहे हैं। देख यह सब!  खुल गया है, म...

सूख जाएगा धरा से, प्रेम जिस दिन!

तृण भी जुड़ा है,  नियति के उस स्रोत से, जिससे जुड़ा है, सूर्य अपना, वह सद्र है, (मुख्य)  नक्षत्र मंडल का,  सही है,  पर भाग, दोनों हैं, इसी  ब्रह्मांड का। भाव: दुनियां में अपने प्रति कभी भी  छोटे बड़े का अहम नहीं करना चलिए। इस नियति चक्र में हर कोई उससे जुड़ा है, उसकी जरूरत है और हर कोई समान रूप से ही सम्मान का पात्र है। आप इक नाच!  रासो-रास का...  ब्रह्मांड में!  युग युगों से.... चल रहा ... अनवरत, शाश्वत!  जो जहां है.. नच रहा,  सच कह रहा!    सच  मैं!  कह रहा!  प्रेम है, परमात्मा,  एक  लालसा है!  मिलन की, देखने की  चाह है वह!  इस लिए जग, चल रहा,  जीवन  जगत में चल रहा । एक आंगन दीर्घ है,  फैला हुआ सजधज लिए, विस्तृत यहां, बीच में है सूर्य,  सागर... प्रेम का,  लहरता..,  चौबीस घंटे,  लालसा ले, हृदय में,  हर पल, उमगता। देखता, जब इस धरा को,  प्रेम में वो बिंध रहा,  मिलन की आशा लिए... निज रश्मियों की, रज्जुओं से... बांधता है, खींचता,  अप...

जाने न कितनी बार से.. मैं मर रहा हूं।

पुष्प:  प्रथम जटिलता के जाल में  फंसी मछली, देखकर  मन से दुखी... था, अफसोस!   उसकी छटपटाहट!  देखता...!   प्रतिपल…., खड़ा मैं;   दिग्भ्रमित.. था। शांत रहती, अगर वह स्थिति, कुछ समझ आती..! पर! चंचला थी,  जितनी हिलती, फंसती जाती। उपक्रम करूं, जब तक कोई, वह फंस गई,  कुछ, इस तरह,  छोड़ कर, मुंह मोड़कर  मैं, लौट आया, हारकर!  पर, फंस गई है,  जान मेरी!   साथ उसके,   इस तरह, की 'है नहीं वो शेष अब' सच जनता हूं;  पर हर शाम,  जब जब  बैठता हूं!  मैं अकेला, ज टिलता के  जाल से उस, गुजरता हूं जिसमे… फंसी थी!  तब  मरी थी! एक मछली सा..लों,  पहले,  खुद को फंसा मै आज भी ठीक, वैसे, देखता हूं। जाने न कितनी बार से.. तबसे  आज तक,  मैं मर रहा हूं। जय प्रकाश मिश्र भाव: सत्य का साथ, उसे जानकर की यह किसी के लिए जीवन मृत्यु का प्रश्न है, जब हम नहीं देते तो पूरे जीवन प्रायश्चित की आग पीछा नहीं छोड़ती। पुष्प: द्वितीय बुझ बुझाकर आग ठंडी हो गई थी, चिंगारियां कुछ रह गई थी...

सूर्य के कुछ शब्द थे! तुम भी सुनो! यदि समय हो!

अश्रु भर… राजीव लोचन  देख कर… दसशीश को, भू-पतित, जो आज..था पतित हो… निज कर्म से। देखकर मर्मांतक!  उस दृश्य को!  अश्रु उनके,  उतर आए,   डबड़बाए  छलक पाते.. ,  धरा पर, उस  पूर्व ही,   नत मुख हुए, वह। करुणा में भीगे!  प्रायश्चित सने!  सिपियों में मोतियों से लटकते वे अश्रु थे,  राजीव लोचन,  करुणा-निधी के नेत्र में। एक गहरी सोच…में,  डूबते ... वे गड़…. गए, ब्राह्मण था!  सामने  जो मृत पड़ा था!  हना! जिसको आज था!  श्री राम ने। आहत नहीं!  हत.. कर चुके.. थे!  संकल्प जिसका ले चुके थे, पूर्व में!  फिर आज क्यों मन में लिए संकोच  वह चुप! चुप!  खड़े थे?  एक  सिलसिला…  था,  युग युगों से.. वंश का इस, उस वंश से..। जो आज!  खंडित  हो गया..... राजीव लोचन श्री, राम ही से। वे व्यथित,  समझा रहे थे,  मन को अपने, शांत हो! हो!  सब लोग.. खुश थे,  पर, वे..खुश  नहीं थे। सूर्य.. जो पीला हुआ,  आकाश में,  मुंह छुपाए बाजुओं में, जा रहा था, डू...

विघ्नेश्वर धरती पर आए।

श्री शक्तियै नमः पर्वत-राज... हिमालय पुत्री जड़ को महिमान्वित करती, धैर्य शक्ति को रसमय करती जड़ के... अंतस से.. उपजीं। भावमयी.. मैना की.. जाई संगम.. जड़-जीवन करती, पृथ्वी पर आरोहन.. करती संकल्प शक्ति सबमें भरती। मैना स्वर..,  पर्वत को भाया मैना... पर्वत... घर ले आया प्रेम स्नेह जब जड़.. में उपजा पार्वती बन.... अंकुर निकला। अटल तपस्या धैर्य... की सीमा संकल्प शक्ति की जीती प्रतिमा, गर्व पूर्ण.... जीवन है.. जिनका शक्ति रूप... आनन है... उनका। जड़-जीवन की  बेटी ने  कल्याण रूप,  शिव को अपनाया, सहज, अकामी,  निरलस, पावन ऐसे शिव को मां ने  पाया। पुत्र गणेश नर-पशु के संगम पूरी प्रकृति.. रूप अवतरण, हस्ती मुंड रूप.. पशुओं का मानव.. धड़.. ऊपर बैठाया। परम कल्याण.. रूप यह पावन कुछ इस तरह भूमि.. पर आया। नमन करो, सब नमन करो!  विघ्नेश्वर धरती पर आया। विघ्नेश्वर धरती पर आया। जय प्रकाश मिश्र

कोई एक छाया मुस्कुराती आ मिली हमदम हुई।

प्रथम दर्श:  इंद्र-धनुष इक तीर लेना.... प्रेम.. का,  रख देर तक..  उसे साधना उस धनुष पर तुम.. उग रहा जो मेघ में.. रंग सतरंगी लिए.. मुझे बेधने.. को हृदय.. में। जल बूंद  जिसमे  लटकती हों,   हर तरफ,  आकाश में,  इस क्षितिज ऊपर,  श्रृंखला में  स्फटिक मणि या मोतियों सी।  खुद सूर्य जिसको बेधता हो  अपनी किरण से, उनके हृदय को। अब जोहती हूं, देखती हूं राह!  तेरी  और बदली कब हुई थी?  पूछती हूं! तुम सभी से। कब उगेगा धनुष वह!   जो इंद्र का है,  कब मुक्त हूंगी, तीर खा  उस धनुष का, मैं इस जगत से। जय प्रकाश मिश्र द्वितीय दर्श: नेता नव-ग्रह नवों ग्रह  हैं, कहां टिकते!   सदा गतिमान रहते हैं;  यहां मन बुद्धि  सबकी डोलती, है पात पीपल के सदृश मैं देखता हूं। शीर्ष पर बैठे हुए...ये लोग  उनसे... कम कहां?  जिस भी घर में हो.. अच्छी जगह उस ओर मुड़ते हैं। ये ग्रह ही हैं, नव-ग्रह!  देख कैसी!  टेढ़ी!  चाल चलते हैं। तृतीय दर्श:  सजदा  हो खड़ा, सज़दे में... उनके...

डूब कर, जब रोशनाई में, कलम!

डूब कर,  जब  रोशनाई में,  कलम!  कोई कहीं... कुछ अनकहा.. लिखने लगे। भाव भीतर..भर उठें, अनुभूति की लहरें हिलक कर!   मन आंगना,  बहने लगें। तो... समझ लेना!  एक... लहरा,  शहद में भीगा... हुआ अब बरसने को आ रहा!  पास तेरे!  मन आज उसका...  स्मृति झरोखों ने निकल कर जा मिला.. ..है, बह रही उस मचलती ... वर्षात की....  दरियायी....  नदी से,  देख तो!  खुले में वो आज कैसे   फिर  रहा है,  झूमता बादल कोई हो। जय प्रकाश मिश्र

दिव्यता चंहुओर ओढ़े सो गई है।

काल अब!  खिलने लगा था!  नील इंदीवर! कमल सा, पूर्व था यह, सृष्टि के निर्माण का। देवताओं के लिए  उद्घोष था!  यह जागृति का..., ब्रह्मांड में फिर, यज्ञ के प्रारंभ का। कालिमा की रात काली,  युग युगों... की,  घुल रही.. थी, स्वतः ही, तलछठों सी बैठती,  एकत्र होती जा रही थी। अंतरों में, काल के,  उर बीच  क्षण क्षण, दिव्यता खुद हो प्रकाशित!  उभर!  ऊपर आ रही थी। लाल अंबुज!  खिल रहा था!  क्षितिज के उस पार  अनुपम!  घटना क्रमों का पथ निरंतर एक ऊपर एक…  क्रमशः  खुल रहा  था। हो रहा था,  सब वहां चुप! चुप!  खड़ा  कोई नहीं था। शांति तो… निःशब्द  कोने बैठकर, प्रभा के इस उदय होते  तीर्थ पर, चकित, विस्मृत  सी खड़ी  हो देखती थी। मौन!   उसके पास  शिशु सा एक कोने वाकदेवी की प्रतीक्षा में  लगा था। वह नियंता!  बैठ कर,  क्या कर रहा था!  क्या अंधेरा! घुप अंधेरा!  उसके लिए भी.. अंधेरा था!  नहीं! वह तो… एक कुत्ता,  काल का, काला लिए एक डोर में बांध...