दिव्यता चंहुओर ओढ़े सो गई है।

काल अब! 

खिलने लगा था! 

नील इंदीवर! कमल सा,

पूर्व था यह, सृष्टि के निर्माण का।

देवताओं के लिए 

उद्घोष था! 

यह जागृति का...,

ब्रह्मांड में फिर, यज्ञ के प्रारंभ का।


कालिमा की रात काली, 

युग युगों... की, 

घुल रही.. थी, स्वतः ही,

तलछठों सी बैठती, 

एकत्र होती जा रही थी।

अंतरों में, काल के, उर बीच 

क्षण क्षण,

दिव्यता खुद हो प्रकाशित! 

उभर! ऊपर आ रही थी।


लाल अंबुज! खिल रहा था! 

क्षितिज के उस पार 

अनुपम! 

घटना क्रमों का पथ निरंतर

एक ऊपर एक… क्रमशः 

खुल रहा था।


हो रहा था, सब

वहां चुप! चुप! 

खड़ा कोई नहीं था।

शांति तो… निःशब्द 

कोने बैठकर,

प्रभा के इस उदय होते 

तीर्थ पर,

चकित, विस्मृत 

सी खड़ी 

हो देखती थी।

मौन!  

उसके पास 

शिशु सा एक कोने

वाकदेवी की प्रतीक्षा में 

लगा था।


वह नियंता! 

बैठ कर, 

क्या कर रहा था! 

क्या अंधेरा! घुप अंधेरा! 

उसके लिए भी.. अंधेरा था! 

नहीं! वह तो…

एक कुत्ता, 

काल का, काला लिए

एक डोर में बांधे 

खड़ा, 

कुछ सोचता था! 


पर, बिकट था,

इस काल का 

वैभव विपुल था! 

इस सृष्टि को खुद में समेंटे,

पास ही उस नियंता के! 

दुम-हिलाता सा 

खड़ा था।

पर क्रूरता से अमरखाता 

विद्रूपता से, नीचे किए 

सिर, हंस रहा था।


काल के 

इस कालिमा के राज्य में 

क्या शांति है! क्षीण हैं 

कर्तव्य सारे! 

मौन है! सब, गतिहीन है! 

तन-मन सभी कुछ, 

हैं जहां तक! 

उम्मीद का अवसान है यह! 

क्या? शक्ति की यह शून्यता है! 

या शून्य का व्यापार है।


काल की… 

इस कालिमा के 

हृदय में…

क्या क्या छिपा है! 

जिसको लिए यह 

नियति के पथ पर खड़ा है

आदि से… 

निश्चिंत अब तक।

इतना बड़ा व्यवधान है यह आज तक,

इस सृष्टि में।

काल के इस हृदय में 

पहुंचने का रास्ता 

कैसा कहां है? 


क्या अनुभवों की शून्यता,

थिर हुआ मन, 

आत्म का अवधान 

दूरी विश्व से, सोच से,

मन इंद्रियों से 

मार्ग है… इस घोरतम के

हृदय के स्पंद का..।

नहीं! 

यह तो काल पशु से, 

निकलने का 

मार्ग है,

पहुंचने का… रास्ता है

विधाता तक… 

जो खड़ा..इसको लिए 

एक हाथ में…बांध डोरी

खुश खड़ा है, आदि से 

आनंद में।


यह कौन है? जो, बुन रही है! 

जाल सारी सृष्टि का, दिन रात लगकर! 

एक हो होकर, 

एक कोने बैठ कर,

इस सृष्टि के,

इस दिव्यता को साथ लेकर! 

मगन हो, अति सहज हो! 

सोचता हूं, थी कहां यह

पूर्व इसके! 

उस सघन, घन, 

घनतर अंधेरे

युग युगों के बीच में।


श्लथ पड़ी थी! 

लय-विलय होते, उदय होते

बनते-बिगड़ते, अन्तरस्वरों में 

अंतर्मनो के बीच में।

पर! एक अनुभव सो रहा था,

घन अंधेरे काल के, विस्तीर्ण पथ पर।

जड़ पड़ा था, था अकंपित! 

शक्ति से वह हीन था,

पर शक्ति का वह मूल था! 

नेत्रपट तो बंद थे,

पर नेत्र थे, जो जोहते थे

किरण की उस रश्मि को

जो चीरती है, 

व्याध के, निर्दय हृदय को

उस मोड़ पर, जब 

वधिक बन, वह प्राण लेता 

पाले हुए, निज श्येन के।


छोड़ इसको, 

सोच तो उस शक्ति को 

जो नियति पथ पर, बैठ कर 

सृष्टि की चादर बनाती 

सो गई है, 

दिव्यता चंहुओर ओढ़े

सो गई है।

बालिका सी परम निर्मल

रूप विग्रह शांति का ले

शक्ति रूपा हो गई है।

जय प्रकाश मिश्र

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