ऐ, जिंदगी! क्या लिया तुझसे है मैने,आज तक!

ऐ, जिंदगी!  

क्या लिया, तुझसे..

है मैने..,

आज तक..! 

इस उम्र तक!  

कुछ तो बता? मैं पूछता हूं! 

याद कर कर! थक गया हूं! 

दौड़ अंधी...!  

दौड़ कर, सच, थक गया हूं।


पास आई थी क्यूं, मेरे? 

साथ लाई क्यों थी, अपने? 

मैं तो खुश था, रात की तन्हाइयों में! 

चिर शांति में, उस अतल तल की..

रसवती.. गहराइयों.. में! 


क्या दिया है?  

तूने, मुझको! आज तक!

तूं ही बता! 

आ बैठ मेरे पास, कुछ तो बात कर! 

मैं अकेला पड़ गया हूं!  

दौड़ कर! 

कौन सा वह काम था.... 

खींच लाई.. थी, 

मुझे

तुम यहां पर! 

सोच कर हैरान हूं! 


क्या वह नियंता!  

व्यर्थ ही जीवन सजाता, 

इस धरा पर! 

पूछता हूं...?

मस्तिष्क का यह खेल 

कैसा वह रचाता, है धरा पर।

लोग पागल... हो गए हैं,

रास्तों से हट.. गए हैं

छोड़ मानव धर्म! 

देखो! धर्म कितने... बन गए है! 


लड़ रहे हैं, जान ले!  

एक दूसरे की....

पर हंस रहे हैं,

छोड़ कर इंसानियत की बात 

सारे.... 

देख तो कट्टर हुए हैं।

वेश-भूषा, रंग, दाढ़ी-बाल पर, 

सब मर रहे हैं।


मारते हैं, खुद को, 

अपने साथ, लोगों को लिए...

उस भीड़ को,

जिसको, वो बना सकते नहीं।

काटते है पेड़ को 

एक पत्ती तक, बना सकते नहीं।

एक पशु अच्छा है, इनसे देख तो

क्यों दिया है दिमाग इनको!  

देख तो! 

क्या कर रहे हैं! आज तेरी इस जमीं पर..

देख तो! 

आग का विप्लव मचा है, देख तो! 

विद्धवंश कैसा है मचा! कुछ देख तो,

छोड़ कर घर बार! बच्चे! भागते है,

हाय! बूढ़े बाप को! को ये मारते हैं! 

जान लेकर कहां जाएं रात को

वो सोचते हैं।


जिसको दिया था बुद्धि 

पागल हो गया है,

जिसको दिया था शक्ति 

वह चुप चुप खड़ा है।

अब एक ही है प्रार्थना सुन ले मेरी

पाषाण युग में भेज इनको 

ये शांत हों, 

छीन ले आवाज इनकी

छीन ले तकनीक इनकी 

छीन ले सारी व्यवस्था।

मूक बन कर सब फिरें, 

चुप चुप रहें

एक दूसरे के बिना ये 

जिंदा रहें।

मिटा दे!  ये धर्म सारे!  एक कर दे..

मिटा दे ये देश.. रेखा, मिटा दे.. 

मस्तिष्क की ये कलाकारी मिटा दे।


शांत कर दे, सब शांत कर दे

काबी..लियत भी खत्म कर दे।

जान पाएं, 

कैसे जिएं ये न्यूनतम में

और खुश रहें

साथ ही एक दूसरे के दुख हरें, 

प्रेम करुणा में पलें।

जय प्रकाश मिश्र

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