लालिमा का लेश लेकर, बाहर झरोखे झांकते थे,
इक कली थी,
कुमुदिनी… की
झील के…. दर्पण सरीखे
स्वच्छ, मुख पर…..
अधर बन,
अधखिल-खिली थी।
लावण्य-मयि, सुषमा लिए,
सुनसान में,
विस्तीर्ण, लहलह लहकते
जलराशि के संभार पर,
कुछ अनोखा सोचती,
मदिर मन! वह, मंद ही
मुसका रही थी।
हिल रही थी,
मधुर लय में बह रही थी
पुरवाइयों के अंक में..
कंपकंपाती,
कुछ इस तरह से डगमगाती...
साल भर की बालिका सी
पग रख रही थी।
गर्दन सुराही से भी लंबी,
कुछ ज्यादा झुकी थी..
नाल पतली, पारदर्शी के सिरे पर
खोलती निज वृन्त
वह नव्या कली थी,
अभी नलिनी नहीं थी।
उम्र कच्ची,
भाव सच्चे, विमल, अच्छे
मन में भरे, वह प्रात के
शुभ काल में,
उगते अरुण के स्नेह में
उर से उमग, स्वागत प्रथम
नतमुखी हो, कर रही थी।
मूक थी, चुप चुप खड़ी थी
पर सरस थी,
नव्य थी, नय ले झुकी थी
राजहंसी सी धवल थी।
बहती हवा संग, हिलडुलाती
मुखरता की डोर थामे,
बात धीमे, बहुत धीमे,
कर रही थी।
सूर्य की
पहली किरण
को देखकर, लाजवंती
पत्तियों सी सिकुड़ती, शर्म से हो लाल,
मुख नीचे किए थी।
पुष्प दल
मिल एक थे,
पर दींखते थे, अलग वे..
एक दूसरे का, मर्म लेकर…
लालिमा का लेश लेकर,
बाहर झरोखों झांकते थे,
श्वेत थे, राजहंसी पंख की गरिमा समेटे
नर्म थे, कोमल बहुत थे।
क्रमशः आगे पढ़ें
जय प्रकाश मिश्र
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