एक चादर डाल ही दूं, नेह की शीतल नरम..
सोचता हूं!
एक चादर डाल ही दूं,
नेह की.. शीतल नरम..
फैल जाए जो परिधि के, अंत तक,
तपते हुए.. इस,
हृदय ऊपर।
तप्त है
जो
तिमिर में..
अज्ञान के निज,
कसकता है, रात-दिन,
दिन-दोपहर, हर..
अहसास..
ले,
ले.. सुलगता है,
छीजता है, खीझ कर, बीते दिनों की
याद कर, कर, बरसता है नेत्र से
अविरल विकल।
तरलता
की चांदनी,
शीतल मधुर,
इस पर बिछा दूं,
सोचता… हूं, प्यार से एक
दीप धर दूं, प्रेम का
स्नेह भर, कुछ
इस तरह…
तिमिर जो..
अज्ञान का… घेरे खड़ा
हर ओर.. इसको, उसको हटा दूं।
पर! यह
तप्त है! अभिशप्त है!
सांसारिक वासना में व्यस्त है!
भोगने को कष्ट, क्यों एक बार यह!
देखता हूँ सोचकर!
शतबार को अभिशप्त है।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: संसार में साधु पुरुष, संत, फकीर सांसारिक लोगों के, कष्ट देख अनेक बार द्रवित हो जाते हैं और अपने संचित कर्मों के, तप के पुण्य का प्रयोग कर उन्हें परिशांत करने का, लाभ देने का प्रयास करते हैं। परंतु अपने कर्म और आदतों के चलते वे पुनः दुखी ही हो जाते है। अतः हमें साधु संगत के बाद स्थाई तौर पर अपने को बदलना चाहिए।
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