सूर्य के कुछ शब्द थे! तुम भी सुनो! यदि समय हो!

अश्रु भर… राजीव लोचन 
देख कर… दसशीश को,
भू-पतित, जो आज..था
पतित हो… निज कर्म से।

देखकर मर्मांतक! 
उस दृश्य को! 
अश्रु उनके, 
उतर आए, 
डबड़बाए 
छलक पाते.. , 
धरा पर, उस 
पूर्व ही, नत मुख हुए,
वह।
करुणा में भीगे! 
प्रायश्चित सने! 
सिपियों में मोतियों से लटकते
वे अश्रु थे, 
राजीव लोचन, 
करुणा-निधी के नेत्र में।


एक गहरी सोच…में, 
डूबते...
वे गड़…. गए,
ब्राह्मण था! 
सामने 
जो मृत पड़ा था! 
हना! जिसको आज था! 
श्री राम ने।
आहत नहीं! 
हत.. कर चुके.. थे! 
संकल्प जिसका ले चुके थे,
पूर्व में! 
फिर आज क्यों
मन में लिए संकोच 
वह चुप! चुप! 
खड़े थे? 

एक 
सिलसिला… था, 
युग युगों से..
वंश का इस, उस वंश से..।
जो आज! 
खंडित हो गया.....
राजीव लोचन श्री, राम ही से।

वे व्यथित, 
समझा रहे थे, 
मन को अपने, शांत हो! हो! 
सब लोग.. खुश थे, 
पर, वे..खुश नहीं थे।

सूर्य.. जो पीला हुआ, 
आकाश में, 
मुंह छुपाए बाजुओं में,
जा रहा था, डूबने! 
डूबने से पूर्व ही…
कुछ कह रहा था..,वंश से ..
क्या सुना.., प्रभु राम ने?  
जानें... वही; 
जोड़ कर निज हस्त.. q
अपने वंश के.. उस सिंह से..
क्षमा अपने कर्म की 
प्रभु मांगने को झुक गए।

सूर्य के कुछ शब्द थे! 
तुम भी सुनो! यदि समय हो! 

पाप क्या है? 
पात्र में रखा हुआ, जल!  
जल की जगह, कोई गंदला जल! 
पात्र क्या है? देह अपनी! 
पाप क्या है? 
जल में घुली वह गंदगी! 
जल करो शोधित, 
जहां तक, तुम कर सको।
न तोड़ो पात्र को तुम! फिर कभी! 
पात्र में अमृत भरो, यदि भर सको।
तोड़ना इस पात्र को, 
और नष्ट करना शुद्ध जल को
पाप है! 
दूर करना गंदगी, धूमिल जलों से
पुण्य है, 
बस इस जगत में।

आखिरी वह बाण था 
प्रभुराम का,
अंत था, यह वध किसी भी 
जीव का, 
प्रभु राम से।

जय प्रकाश मिश्र

 






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