ईश्वर से मेरी मुलाकात हुई कुछ बात हुई।
मिल गये एक दिन इधर ही,
रस्ते चलते!
क्या आप भी! बिक गए? यूं ही!
सरे राह ऐसे वैसे?
फूल, माला, प्रसादो, चढ़ावों से
देखते देखते?
इन कुटिल लोगों की अजानों से
सजदा से, मुल्ला की कट्टर
तकरीरें सुनते सुनते।
वो तपाक से बोले,
क्या कभी अपनी भी देखी.. है,
हर चीज में चाहे स्वार्थ हो,
क्रोध जो, सहनशीलता हो,
व्यभिचार हो सभी में गिर गए हो
जानवर से भी नीचे।
आखिर! मैं तुम्हारा ही तो ईश्वर हूं…
आधार तुम ही तो हो मेरे!
इमारत कितनी भी ऊंची हो
कितनी ही शानदार हो
जब आधार ही, धंसता हो
तो बताओ?
बेचारा शीर्ष उतना ऊंचा रहे कैसे।
पहले
शीर्ष ही तो,
जमीं पर गिरता है.
सोचो मैं तो..
किसी तरह, अपनी माया से
आज भी तुमसे ऊंचे, हवा में टंगा हूं।
तुम्हारे सन्नाटे वाले, और जीर्ण-शीर्ण
मंदिरों, मस्जिदों में आज भी
वैसे ही डटा हूं।
बातें उनकी
फर्स्ट ऑर्डर में मुझे सही लगीं…
अपने को, और आप पढ़ने वाले लोगों
को, दोनों को
खूब गहराई से आंका,
और चुपचाप पतली गली भागा।
बस! एक बात
उनकी आज भी, सालती है मुझे!
जो उन्होंने बुलाकर कहा ...
बहुत धीरे..
”देख.. असली बात बताऊं तुझकों..
आदमी का ईश्वर.. मैं.. अब
जानवरो के ईश्वर से भी…
तुम लोगों के कारण नीचा हूं!
शर्म आती है मुझे!
उसे अब वहां, फेस करने में।
मेरा बगलगीर है वो
सच सुन! मैं अमर हूं!
पर शर्म से हर दिन सौ बार नहीं
हजार बार मरता हूं”।
मैने मुंह नीचा किया,
बहुत धीरे से, बुदबुदाया...
नमस्ते किया.. उलाहना वापस लिया
अंतर्मुखी हो चलता बना।
आप भी आदमी हो!
जरा उसकी समस्या, बतौर बगलगीर!
जो उसका है जानवरों वाला ईश्वर!
इसको पढ़ के,
अपने को समझना, न कि उसे।
जय प्रकाश मिश्र
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