कुछ यादें बीते बरसात की।

एक रुनझुन सी अजब 

बजने लगी है कानों में,

लगता है यहीं, कहीं, बूंदे 

गिरने लगी हैं… पत्तों पे।


ये कौन!  

बजाता है…सितार! 

ऐसा… 

मेरे कानों में, 

मचल उठी हैं, 

सारी पत्तियां

बूढ़े पेड़ की, इन शाखों पे।

ये टपकती! 

टप टप की टपकन,

इक इक, समोए है मुझे, 

घंटो से! 

कौन... बैठा है! वहां

चैन देता ही नहीं...

अपनी, उन उंगलियों को।


चढ़ के... 

आता है कोई 

घर पे मेरे बार बार..

ऐसे... क्यों! 

आवाज! घुड़दौड़ की.. 

सुन,सुन के.. मैं हैरां हूं! 

कहां गया वो मुसाफिर 

जो उतरा होगा! 

खोजता हूं हर बार, घर से बाहर..  

परेशां होकर। 


सब चुप हैं! 

ये कौन है! जो बोलता है; 

सारी आवाजों को 

एक साथ निगल लेता है,

कहां गए, वो लोग.. 

जो कहते थे, हम अभी जिंदा हैं,

कोई एक!  

आवाज-ए-जवाब देने को, तो

हाजिर हो! 


ये, बूंदें हैं, 

रस हैं, आसमां… का, 

समंदर से चल के आईं हैं, 

पास मेरे..,छूती हैं मुझे, 

भिगोती हैं मुझे, साथ अपने

उनकी दरियादिली है ये

या उनकी आशनाई है।


एक पेड़ से पूछा मैने,

क्या है ये बारिश तेरे लिए! 

भीगते, ठिठुरते 

बोला धीरे! 

तूं क्या जाने! क्या है ये! 

जीवन है मेरा…

मेरे तो नस नस में, 

अमरित सी उतर जाती है।

सिहरते पत्तों ने… 

खुश होके.. कुछ ऐसे 

बुदबुदाया धीमे…

गुदगुदाती है हमे, 

हर पेड़ो को, कभी एकबार

जैसे, कोई सालों में। 

जय प्रकाश मिश्र

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