क्या सार है सुषमामयी इस शाम का!
पुष्प प्रथम: आभामय दीपों भरी शाम
क्या सार है इस इंद्रधनुषी पुष्प का?
क्या सार है इस चित्त खिंचते रूप का?
क्या सार है सुषमामयी.. आभामयी..
इस शाम का?
पूछते हैं आप!
तो फिर मैं बताऊं?
थोड़ा सुनें बस आप,
यह तो! निवेदन.. हैं,
मौन का.. !
सौंदर्य.. के संभार का
साभार.. आग्रह..!
कह रहा वह..थोड़ा.. रुको!
एक बार देखो, ध्यान से,
उसकी तरफ
धीमा.. चलो! वो देख.. पाए!
कौन हो.. तुम!
समझ पाए, मर्म.. तेरा!
यदि उचित हो, पास आए..
नहीं तो.. वह दूर.. तुमसे
छुप छुपाए।
वह यहां.., तुमसे मिला था
याद आए, स्मृति में..नित्य तेरे..
कुछ नहीं तो.., कल्पना में
ही लुभाए! जिंदगी भर!
कुछ सरस तुममें जगाए!
जिंदगी भर!
और क्या है रूप सुंदर!
यदि जानते हैं आप कुछ इससे अलग
तो मुझको बताएँ!
जय प्रकाश मिश्र
पुष्प द्वितीय: कर्म सारे बंधनों से मुक्त है
तूं कर्म से क्यों भागता है!
सच, क्या! कर्म तुझको बांधता है?
तो सुनो!
निज बंधनों को...
खोलने... का
जो उपक्रम कर रहे हो,
वह कर्म ही हैं, सोच लो!
कर्म तो बस.. कर्म हैं,
उसको पता क्या?
खोलने का बांधने का भेद
हम ही जानते हैं।
कर्म कर, वो कर्म है बस
दूर हो उस मर्म से, अपने हिए को
डूब मत, स्पर्श कर बस
मस्त रह, अपने किए से।
स्वरचित मूल रचना आप मित्रों के लिए
जय प्रकाश मिश्र
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