दूर हैं…इस सभ्यता से, मुक्त हैं, हर कालिमा से।
वह मेरा ही, घर.. है,
पूर्व का..., मै जानता हूं,
पर, दूर हूं, ..अब. इन
विहंगम घाटियों से!
पहचानता हूं!
घूमता था!
रात-दिन, दोपहर,
चढ़ इन बादलों...
ऊपर!
पकड़ पर, (पंख)
निरखता था।
देखता था,
धूप छाया खेल,
सच वह प्रकृति-मानव मेल।
कैसे! रुनझुन उतरती, ....धूप,
रखती पांव, धीमे…खूब,
घाटियों की तलहटी में।
डरी सहमी...!
नन्हीं बालिका सी,
किंचित भटकती...
किंचित सशंकित..
प्यार से छू भूमि, वह कृत कृत्य होती।
घने पेड़ों बीच, रुक!
विश्राम करती,
पल एक वह..
खेलती, कुछ देर!
संग, उन बालकों के,
गंधर्व शिशु, जो परम पावन,
दुग्ध सरिता सदृश जल से
खेलते हैं, खेल
मिल एक दूसरे के।
साथ में,
हाथों में ले ले हाथ,
नचते, कूदते हैं।
प्रेम में ये लिपटते हैं,
विश्वास संग ये पल रहे।
दूर हैं… इस सभ्यता से,
मुक्त हैं… हर कालिमा से।
मुक्त हैं, हर लालसा… से, मस्त हैं।
प्रकृति की ही गोद में ये पल रहे हैं।
देख यह सब!
खुल गया है, मन मेरा,
मुसका रहा है….
पवन का यह मुक्त झोंका
आज..मुझको पास इतने छू रहा है;
कह रहा है, आ चलें फिर..
घाटियों की तलहटी में..
संग लेकर जा रहा है,
उड़ चलूं मैं साथ इसके चाहता हूं
तुम ही बताओ क्या करूं!
मैं क्या करूं!
संकलित: मेरी प्रथम अप्रकाशित रचना “दीपोद्यान प्रथम-सर्ग” से साभार आपके लिए।
जय प्रकाश मिश्र
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