बीच में वह नयन शुष्का श्यामली! धीरज भरे कुछ देखती थी..

क्या चहक है, 

रंग है! उत्साह.. है! 

लग रहा.. है, सच! कोई त्योहार.. है,

कुछ.. घुल.. गया है, फिजां में… 

हरओर… देखो!  

मन सभी का उत्स-ए-सरोबार है।


क्या हुआ है?  

धुल गई हैं, हर दिशाएं! 

आकाश फिर से 

नमी भर कर आ गया है।

आ गईं है बालियां फसलों में फिर से…

मेहनतकशों का दिल उछलता जा रहा है।


पर्व है यह, दीप का, पर्व है समृद्धि का

पर्व है यह, संक्रमण का, प्रगति का, 

पर्व है उत्थान का।

पर्व है यह, वापसी के, राम का 

पर्व है मिष्ठान्न का।


पर्व है यह प्रकृति का भी

देख तो! कुछ इसलिए स्नान कर, यह 

प्रकृति खुश.. है, 

कुछ इसलिए ही स्वच्छ हैं, सारी दिशाएं।

कुछ इसलिए ही 

बालकों का मन भी खुश है,

कुछ इसलिए ही लोग खुश हैं, 

राम आए आज के दिन 

बहुत पहले, लौटकर थे अयोध्या में ।


आज मुंह, मीठा ही होगा,

हर किसी का

आज मन फिर खिल उठेगा 

हर किसी का

आज दीपो से भरी 

यह शाम होगी

आज लक्ष्मी हर किसी के 

धाम होंगी।


आदमी है.., संग इसके…, 

बहुत लंबी संस्कृति.. है,

खुश हुआ..जब, जब 

बजाकर 

तालियों को  

आवाज… कर कर.. 

खुश हुआ है, आजतक।

आज भी कुछ चुटुक होगा..

दम दमादम बम फटेगा.

पर…

प्यार से, 

और प्यार तक, सीमित रहेगा।


यह उजाला फैल जाए अब दिलों में

यह उजाला फैल जाए अब दृगों में

यह उजाला फैल जाए अब तमस में

यह उजाला फैल जाए अब सभी में।

चाहता हूं सभी मिलकर एक हों

चाहता हूं सभी मिलकर नेक हों,

चाहता हूं सभी दीवाली मनाएं,

चाहता हूं सभी खुशियों में समाएं।

जय प्रकाश मिश्र

आपके लिए एक अच्छी रचना और प्रस्तुत है: 

एक दुकान है, मिट्टी के दियों की, मिट्टी के खिलौने की, किचिन सेट की जिसमें जांता, चूल्हा, मूसल, थरिया, लोटा, कर्छुल, सब गाढ़े पिंक रंग में रंगी आकृतियां हैं यह सब लेकर बेचने के लिए एक छोटी सी बच्ची गांव से शहर इन्हें बेचने आई है। सड़क किनारे दुकान लग गई है। दोपहर में अकेली पसीना पसीना हो खरीददार को टोहती ऊंघ रही थी। आगे पढ़ें आंखों देखा है मेरा…

हां, वह पुष्प थी! 

किसी कुंज की..

नदिया नहीं.. कोई!  नीर भर भर.. 

निकट.. जिसके, बह.. रही थी।

सूखी हुई, पाथर भरी

वह जगह थी,

वो......

जहां, पैदा हुई थी।


शुष्क थीं आंखे! 

तपी सूरत! सहज थी! 

बच्ची अभी थी, साल तेरह की हुई थी।

सांवला रंग मुफ्त, देता है विधाता! 

जाने न क्यों! मैं क्या कहूं!  

जिसको भी देखा 

आजतक

सहते

हुए दुख! 

और पीड़ा! 

इस जहां में, जहां तक, सच कह रहा हूं! 

वह कहां इससे इतर.. थी, 

सांवली थी.. 

वो...

अरे! हां सांवली थी! 


बैठी हुई वह धूप में 

उस दोपहर में, 

तैलीय बहते, स्वेद रूपी 

स्नेह के संग

दिप रहे, किसी दीप सी ही, 

बैठ कर चुप, जल रही थी, दोपहर में।


सामने अंबार था, 

सम्भार था..

सच मृत्तिका.. का, 

रूप भर श्रृंगार था..

उन मातृका का..

दीए पके थे ताम्रवर्णी, कुंमुनाते ढेर में

कलश थे आशीष देते पंक्ति वद्यित वेश में

बालिकाओं को लुभाते, 

रथ सजीले, कुछ रखे थे, 

किचेन सेट, कुछ गाय बछड़े, 

घर अनोखे, बटुली, बटूले, 

जांता, चाकी, मूसलो संग

थाली कटोरी मिट्टियों के 

रंग रंगीले सज धजे थे।

बीच में वह नयन शुष्का श्यामली! 

धीरज भरे थी देखती..

तप रती सी, निश्चला 

चुप चुप खड़ी थी।

क्रमशः आगे पढ़ें..

जय प्रकाश मिश्र





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