अनंतता, कितनी भी छोटी हो, पर है अनंतता
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लड़ियां: फुल्ल पुष्पों की
शीर्षक: दुनियां और रिश्ते (प्रथम)
खत तेरे दे प्यारां पुत्तर
लिक्खा है..,
पढ़ सक्के तो पढ़ लेंईआं
थोड़ा आराम दे।
नूं जानूं, तूं कित्ता जान दे दे के,
लगदा है दिन रात,
जीतन वास्दे दुनियां.. ये,
तूं कित्ता..
प्रान दे दे के.. फ़िद्दा फित्ता.. है।
म्हारी भी सुन..!
मैनूं ना.. चहिए! तेरे बिन.. कुछ!
अब आ, घर.. आज्जा,
देखन चाहूं, एक बार.. तुज्झे,
नज़दीकाँ दे, इन बुझदी आंखन दे।
प्यासा ना फेज… मुज्झे,
मेरा दिल शर्मिंदीयां.. है।
मैनू कीइनू पैदा.. किया, या रब!
बुलाने पे भी ना आइंदा है जो..
मेरे जाने का नखत होइंदा है।
ओए, ए जग जीतने दे, की होइन्दा
जब, जग छोड़ के, ही
जाइंदा है, तुझ्झे भी
मेरे नाल दिन एक।
भाव: जिंदगी आज की, अरमानों की चाहत में अपनों से, और दिली रिश्तों से, दिनोदिन दूर होती जा रही है। एक सिक्ख अपने बेटे से कहता है कि जितनी भी दुनियां तूं चाहे जीत ले वह एक दिन छूट ही जाएगी। अपनों की मिठास का आनंद ले और अपनों को इसका आनंद दे। इसी के लिए अपने और परिवार होते हैं।
शीर्षक: हम और हमारी इच्छाएं (द्वितीय)
इतनी! इच्छाएं!
इतने लोग!
दुनियां में फैले
बहत्तर रोग!
ऊपर वाला, परेशान!
सोच सोच कर हैरान!
करे.. क्या!
कितनों की कितनी, अधूरी रखे
कितनों की कितनी, पूरी… करे।
शीर्षक: हम और हमारी जरूरत (तृतीय)
सोचता हूं!
इच्छाएं क्या जरूरत.. हैं?
या जरूरत बन जाती है, इच्छाएं..।
पर देखा है, जरूरत हमेशा..
एक नाप, तौल में, होती.. है,
सामान्यतः छोटी,
हिसाब से बड़ी, नहीं ही होती।
मुंह बंद रखती हैं,
रूखी सूखी सी रहती हैं,
मुस्कुराती नहीं
मतलब की, बात करती हैं।
जरूरत बेलगाम नहीं हो सकतीं है।
शीर्षक: इच्छाएं और उनका रूप (तृतीय)
इच्छाएं मीठी,
नर्म, मुलायम, रास्तों से हटतीं,
भटकतीं..
इधर उधर देखतीं,
बच्चों सी लपकतीं..
यथार्थ के धरातल को क्षण मात्र
स्पर्श करतीं..
हवाओं संग उडतीं.. हैं।
जाड़े के
ठिठुरन में,
आग की चाहत सी..
जरूरत का फटा पाजामा.. पहने
पतलून.. में बदलती हैं।
फागुनी..
बयार में, जुल्फों सी.. उड़ती
दिल में उतरती.. हैं।
शीर्षक: अकामीपना या अंतर्तृप्ति ही मार्ग (चतुर्थ)
इतनी..
इच्छाएं लिए,
इतने.. लोग, जाएं कहां..
पास.. किसके?
पूरी कर सके जो उन्हें..।
आखिर..!
कहीं, कोई एक
अकामी तो हो..
भर गया हो, जो ऊपर तक..
अब बिल्कुल भी, खाली…न, हो।
तभी तो
देगा…वह..
वह.., सबकुछ!
जिसके लिए तड़प है!
लोगों में,
पाने की, समाने की,
संग जिसके,
इस मिट्टी में, मिल जाने की।
वो अकामी आगे..,
और…आगे,
प्राप्तियों का क्या करेगा!
कब तलक! कहां तलक!
कितना! कैसे रखेगा,
किसी न किसी को
आखिर! वो सबकुछ देगा, ही देगा।
सच,
उसको जो जो मिलेगा,
सारा कुछ, लोगो के लिए, ही होगा।
अकामीपना क्या है?
एक अंतर्तृप्ति.. की अवस्था!
एक समझ की उपज!
एक संतृप्ति का भाव!
भर गया! हो गया! अब बस! और नहीं!
वह तृप्त होगा:
ज्ञान चक्षु से देखकर,
लौकिक आंखों की दृष्टि से छूकर
कर्ण से सुनकर,
और ज्यादा तो सुगंध की तृप्ति
वह भौतिक की जगह मानसिक जीवन
जीता है, अकामी है, हमेशा सन्तृप्त रहता है।
लड़ियां: fond less is the actual king
जिसे, अब नहीं चाहिए,
वही तो सच्चा राजा है,
प्रतीक है, उस अनंतता का,
जो सदा से बहती रही है,
लोगों के लिए!
हवा पानी, शीतलता लिए!
अपने हिये!
नदी बन,
समीर बन,
संत बन, फकीर बन,
आदि अनादि से, आम जीवों के लिए।
शीर्षक: अहम का त्याग ही अनंत मिलन
शरण, तो, आते हि हैं।
अनंत सागर के
सभी!
एक दिन
ये गरजते, घुमड़ते!
सारे के सारे! भागते, बादल,
उड़ रहे हों,
ऊंचे!
आकाश में
आज चाहे, जितने कपिंजल।
सभी
बादलों का मान
सागर ही निबाहता है,
दिशा में किसी जाएं, जीवन वहीं पाता है।
इसलिए अहम किसका!
आखिर! सहारा बस, उस एक का।
शीर्षक: अनंत का साक्षात्कार और मिलन
हर बूंद!
छोटी ही हो, अपने में,
क्या सागर नही है! मात्र भाग ही है।
उस लह-लह लहलहाते सागर का।
वहीं तो महासागर है!
पहचानो तो!
देखो कैसे ...
आकाश में वह अनंत
उड़ता हुआ,
बिकल
सूक्ष्म बन..
पास आने को तेरे
अपनी अनंतता लिए, बूंद बन, बन!
छोटा है, पर है अनंत..
वह, वही रहता है सदा..
अनंत के हर.. अंशों में!
विवश है वह,
अपनी इच्छाओं से!
तुम्हे अपने में,
अनंत में
मिलाने
को
पास तो आओ इसके,
एक बार पूरा तो समाओ इसमें।
लड़ियां: फुल्ल पुष्पों की (द्वादशम)
पर विवश हैं हम!
विवश हो तुम!
अपने स्वार्थ में, लालच में
अलग रहने को, अतृप्त होने को
तृणवत नागफणी इच्छाओं की अग्नि में
अनंत की परिछाया में सतत झुलसने को।
जय प्रकाश मिश्र
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