स्वप्न कलेवर आभा ओढ़े, मन बिच फांस पड़ी री ऐसे,

हे मेरे छल! 

तू आगे मैं पीछे,

तेरा भास मुझे ले खींचे

आऊं आंखे मींचे।

भाव: सतरंगी इच्छाएं अपनी स्वप्निल आभामय चकाचौंध में हमे अंधे सी बना कर दौड़ाती हैं।

स्वप्न कलेवर आभा ओढ़े

मन बिच फांस पड़ी री ऐसे,

दूरी सिमट गई हो जैसे

तन परिमल में लिपटें।

भाव:  माधुर्य और आशा की पिटारी में रखी चाहतें हमे सुख और मदिर आनंद की राह पर खींचती जाती हैं। हम उनमें लय होते जाते हैं। वे हमे सुगंध सी बांध लेती हैं।

मिलि मिटि जाउं

बूंद बनि तुम सँग,

तन सिहरे

मन भींजे। 

भाव: कल्पनाशील और मधुमयी इच्छाए अपने साथ हमारा तन मन एक कर लेती हैं।

अधर हिलत 

जस महुआ टपके,

रस बरसत

नयनन से।


हिय की हरष

कइस कहि पाऊं,

जस बछरू 

उछरै, गौ थन से।

भाव: जीवन में माधुर्य भाव और प्रफुल्लता दोनों एक दूसरे से सिक्कों के दोनों पहलू जैसे जुड़े हैं।

सोचु मिलन

कइसन यह होई,

नद सागर मिलईं 

स शत जनम से।


इन्द्रिय सकल

उलिझि तब जैहैं,

बाति न निकसी

मुखन से।

भाव: आनंदातिरेक में इंद्रियों शिथिल हो जाती हैं और मन बुद्धि मूक हो जाती है।

नयन दुऊ पाथर 

हुई जैहैहि,

बस मुसकनि

बची अधर पे।


छल की माया

अइसी व्यापी

तन के रहे

न मन के।

भाव: आनंद की पराकाष्ठा समाधि की अवस्था बन जाती हैं। मनुष्य इस संसार की वस्तु या विषय नहीं बचता। परालौकिकता में स्पर्श पाता है।

मन एहि जग 

कैसे भरमावै

सपन दिखावत

"रल" के।


छलना थोड़ी जब गहि पावै,

हाथ परस कँह दीखे।

चंचल छाया अस ये भागे,

चल बबुआ हम रीते।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: यद्यपि माया और मन उस स्थिति में जाने से रोकते हैं। अपनी चंचल छलनामई लुभावनी छवि में फंसा ही लेते हैं। और हम उसमें सामान्यतः फंस ही जाते हैं खुश भी होते हैं।

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