जाने न कितनी बार से.. मैं मर रहा हूं।
पुष्प: प्रथम
जटिलता के जाल में
फंसी मछली, देखकर
मन से दुखी... था,
अफसोस!
उसकी छटपटाहट!
देखता...!
प्रतिपल…., खड़ा मैं;
दिग्भ्रमित.. था।
शांत रहती, अगर वह
स्थिति, कुछ समझ आती..!
पर! चंचला थी,
जितनी हिलती, फंसती जाती।
उपक्रम करूं, जब तक कोई,
वह फंस गई,
कुछ, इस तरह,
छोड़ कर, मुंह मोड़कर
मैं, लौट आया, हारकर!
पर, फंस गई है,
जान मेरी!
साथ उसके, इस तरह, की
'है नहीं वो शेष अब' सच जनता हूं;
पर हर शाम, जब जब
बैठता हूं! मैं अकेला,
जटिलता के
जाल से उस, गुजरता हूं
जिसमे… फंसी थी!
तब मरी थी! एक मछली
सा..लों, पहले,
खुद को फंसा मै आज भी
ठीक, वैसे, देखता हूं।
जाने न कितनी बार से.. तबसे
आज तक, मैं मर रहा हूं।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: सत्य का साथ, उसे जानकर की यह किसी के लिए जीवन मृत्यु का प्रश्न है, जब हम नहीं देते तो पूरे जीवन प्रायश्चित की आग पीछा नहीं छोड़ती।
पुष्प: द्वितीय
बुझ बुझाकर
आग ठंडी हो गई थी,
चिंगारियां कुछ रह गई थी
अनबुझी;
समय इनको बुझा देगा
सोचता, आगे बढ़ गया वह,
स्मृति से दूर वे सब हो गईं।
ढल रही उम्र के इस मोड पर
आज इतने बाद सब लावा हुईं।
भाव: अपनी मजबूत स्थिति में, अच्छे दिनों में लोग लोग छोटी छोटी चीजों को नजरंदाज कर जाते हैं। कभी कभी ये छोटी स्थिति समय के साथ बढ़ जाती है।
तृतीय: पुष्प
पूछ बैठी एक दिन
एक तृषित पल्लव आम की,
ग्रीष्म की उस, उमसती
तपती, झुलसती
दुपहरी से,
कौन हो तुम, क्यों सताती?
इस रसीले आम को
सूखी हवाओं संग!
आकर हो जलाती, हर दोपहर को।
भाव: अपनी पावरफुल स्थिति में हम अपने से नीचे और आस पास के गरीब लोगों को स्थिति को नजअंदाज कर जाते हैं। जब की वह वहां भीतर भीतर बड़े असंतोष का कारण बनता है।
जय प्रकाश
Comments
Post a Comment