सूख जाएगा धरा से, प्रेम जिस दिन!

तृण भी जुड़ा है, 

नियति के उस स्रोत से,

जिससे जुड़ा है, सूर्य अपना,

वह सद्र है, (मुख्य) 

नक्षत्र मंडल का, सही है, 

पर भाग, दोनों हैं, इसी ब्रह्मांड का।

भाव: दुनियां में अपने प्रति कभी भी छोटे बड़े का अहम नहीं करना चलिए। इस नियति चक्र में हर कोई उससे जुड़ा है, उसकी जरूरत है और हर कोई समान रूप से ही सम्मान का पात्र है। आप


इक नाच! 

रासो-रास का... 

ब्रह्मांड में! युग युगों से....

चल रहा ... अनवरत, शाश्वत! 

जो जहां है.. नच रहा, 

सच कह रहा!  

सच मैं! कह रहा! 


प्रेम है, परमात्मा, 

एक लालसा है! 

मिलन की, देखने की 

चाह है वह! 

इस लिए जग, चल रहा, 

जीवन जगत में चल रहा


एक आंगन दीर्घ है, 

फैला हुआ

सजधज लिए, विस्तृत यहां,

बीच में है सूर्य, 

सागर... प्रेम का, 

लहरता.., चौबीस घंटे, 

लालसा ले, हृदय में, 

हर पल, उमगता।

देखता, जब इस धरा को, 

प्रेम में वो बिंध रहा, 

मिलन की आशा लिए...

निज रश्मियों की, रज्जुओं से...

बांधता है, खींचता, 

अपनी तरफ, 

पर वस्त्र उसके वारि के हैं, 

वायु के हैं... 

हर तरफ, जो छलकते हैं,

पकड़ने पर।


इसलिए ही 

नाच जाती है धरा, 

यह अक्ष पर, अपने, खड़ी हो।

थोड़ी लजाती, झुक है जाती, 

सरकती है, स्नेह से गतिमय हुई यह! 

पर लाज की, सीमा निभाती, दूरी बनाती 

साल भर की अवधि में इक बार ही

नजदीक जाती, 

पर दूर रहती है सदा! 

लाज, कुल की, है निभाती।


प्रेम का ही, स्नेह का ही, खेल 

सारे मंडलों में चल रहा है, 

नाचता ब्रह्मांड 

संग में नाचती है सृष्टि सारी, 

नाचता यह विश्व, 

संग संग नाचते है जीव सारे।

एक नाच! रासो-रास का... 

ब्रह्मांड में! युग युगों से....

चल रहा... अनवरत! शाश्वत!  

जो जहां है.. नच रहा, 

सच कह रहा! सच मैं कह रहा! 


इसलिए यह, कह रहा हूं 

ध्यान दें: 

दिन रात, यह मौसम महीने, 

साल सारे, समय सारा, 

धनधान्य अपना, 

बह रहा जीवन तुम्हारा,

सब कुछ यहां जो देखते हैं,

प्रेम है, बस प्रेम है। 

प्रेम के ही रूप हो तुम

प्रेम तेरा ध्येय हो।

सूख जाएगा धरा से, प्रेम जिस दिन! 

शांत होगा, समय!  

सब रुक! खाक ही रह जाएगा।

यह धरा मिट जाएगी, नक्षत्र भी गिर जाएंगे।

जय प्रकाश मिश्र







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