खुशियां दें, उम्मीद-भरें, उनमें, जो टूट गए, थे कभी
पुष्प प्रथम: एक बार, जी.. लो।
छोड़ो..
ये सब कुछ...
जिससे, दुखता है, दिल!
चलो...,
हिलमिल!
कुछ और... करें, मिलजुल
हमतुम..!
कुछ पेड़..
लगाएं, हट के..दुनियां से
रंगीले, खुशबू..भरे।
फैलाएं जो..केवल, खुशियां,
छाया और खुशुबू...
जन्नत.. की
फिर से...
अपनी इस, प्यारी धरती पे।
चलो..
एक जश्न मनाएं
फिर से, मिल, हम तुम!
कुछ पेड़ लगाए थे कभी,
तुम हमने,
हंस हंस के
देखो, आए हैं..कैसे अब
झूम के खिलने,
भर भर आंगन खुद ही, अपने।
चलो जश्न मनाएं फिर से, मिल हम तुम।
चलो..
छूएं इन्हें, हर बार,
जब जब मन रीता-ए..दुनियां से..
इन्हें सहलाएं, प्यार करें,
पर! हल्के हंसे,
कहीं ये न डरें! हमसे।
हंस लेना,
वैसे ही तुम, खुलके
फिर एक बार, कभी,
जब फूल खिलें, अलमस्त
सुर्ख, लाल लाल! इनमें।
चलो...
थोड़ा मुस्कुराएं, एक साथ!
अब जब, परों सी, नर्म पत्तियां
निकलें, इनमे इस माह!
गौर से देखें इन्हें!
दिल से खुश हों, सच में बहक जाएं।
चलो मुस्काएं हम तुम।
जिन्दगी!
और क्या है, रे!
क्यूं! रो मत! चल, फिर से,
दुबारा, मिलजुल कहीं तो
दिल को
तबियत से लगाएं.. हम तुम।
चलो
कुछ अच्छा करें,
अलहिदा सोचें, जड़ से जुड़े...
दिल से करें....
फिर! एक-संग, हिलमिल हम तुम!
खुशियां दें, उम्मीद-भरें, उनमें,
जो टूट गए, थे कभी, अपने ही
रस्तों पर...
चलते चलते..।
विश्वास बसाएं,
भीतर...उनके,
प्यार..से देखें... उन्हें,
दोबारा.. प्यार करें,
चलो फिर! एक बार करें..।
हम-तुम 'किसी अदने को ही सही'
'सही से प्यार' करें।
जय प्रकाश मिश्र
प्रार्थना: वह अग्नि देव प्रसन्न हों जो समस्त कर्मों में लोकहितार्थ सत्य को आत्मर्पित हैं,और सद-मानवों का समस्त कल्याण प्रसन्नता पूर्वक धारण करते हैं।
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