फिर वहीं पहुंच गए, जहां से वे गांधी पैदा हुए।

देखा तो नहीं,

सुना है, कोई गांधी था, 

कभी आया था! यहां, इस धरा ऊपर।

संयोग ही था, मिल गईं उनको

टालस्टाय की कुछ बेहतरीन पुस्तकें, 

पढ़ा नहीं पहन लिया, बातें उनकी; 

माय मास्टर एंड मी…और भी।

पुस्तकों में बोया बीज, 

अंकुरित हुआ था, 

लियो.. का, 

गांधी 

में, 

कुछ 

इस तरह, 

अहिंसा ने जन्म लिया, 

जड़ जमाई, भारत की धरती पर 

फिर एक बार, गहराई से इसी धरा ऊपर।


सत्याग्रह के 

उजले कपड़ों में लिपटी, 

असहयोग की श्याम रंगत लिए

गांधी को उपकरण बना फैली यहीं 

वहीं अहिंसा इस धरती ऊपर।

खड़ी कर गया बहुतेरी 

सूरतें अपने जैसी, 

अनेक रूपों में 

कहीं सफल मंडेला

कहीं असफल लामा जैसी।


वो बावला था, 

दुनियां की रस्मो से

बार बार बंधन तोड़े, 

अपने ही बाल बच्चों से; 

पर, रिवायत निभाई, 

जिनका नमक खाया था,

जान भी दे दी, 

पर रिवायत निभाया था।


वो जिंदा प्रयोगशाला था, 

अहिंसा की; इस धरती पे।

मूर्तियों में ही हों, 

पर आज भी खडा हैं, 

अपना संदेश लिए 

उसी तरह,

लाठी के बल पर नहीं

लाठी पर टिकी भी नहीं

वहीं अहिंसा…

दुनियां भर में, जगह जगह 

ठीक वैसी ही, वहीं पे अड़ी।

और हम, 

दुनिया वाले, 

आज फिर उसी 

स्वार्थ, साम्राज्य, पूंजीबाद और

मानव से मानव की दुर्सुरक्षा

की चाहत में फिर वहीं पहुंच गए 

जहां से वे गांधी पैदा हुए।

जहां से वे गांधी पैदा हुए।

जय प्रकाश मिश्र


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