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Showing posts from July, 2024

मन फूल सा हल्का हुआ।

मन फूल सा हल्का हुआ  क्या देखकर?   तुम ही बताओ?  मित्र हो!  अग्रज मेरे!  अनुज हो!  कुछ भी नहीं,  तुम!   हाय मेरे!  तुम ही बताओ......कौन हो?  पर साथ हो,  इसलिए  "साथी मेरे हो" प्रिय!  साथी मेरे हो!  सच कहूं, यह सोचकर   "मन मेरा किसी फूल सा हल्का हुआ"। कभी, सोचता था!   मैं अकेला हो गया हूं!  इस धरा पर!  पर,  साथ पाकर बदलियों  की  बिजलियों का,  घन चीरता, हर ओर मेरे,  कुछ गजब...  उजाला फैला। एक राही जा रहा था, घन-अंधेरे, रात में, पा गया, इस रौशनी को खुश हुआ।  कुछ दूर तक आगे बढ़ा, चमकती इन बिजलियों  की चमचमाती द्यूतियों में सुरक्षित, वह घर गया।  देखता हूं, घर मैं उसका!  हंस रहीं हैं, खिलखिलाती,  बच्चियां,   बस! ....,  पाकर उसे!  छूकर उसे!  कुछ भी नहीं था पास उसके दे सके उन बच्चियों को। यह सत्य था, ज्यादा अंधेरा,  घर में उसके  जाने न कब से, था भरा!  "देख कर वह प्यार निश्छल,  नन्हियों का...

ये खुशबू कह रही मुझसे कोई.. भीगी.. कहानी है।

 इन पंक्तियों की पृष्ठ भूमि में एक पिता और पुत्र हैं जो अपने समय में हर तरह श्रेष्ठ रहे हैं। पद प्रतिष्ठा और प्राप्ति में भी। दूर है कई समंदर पार दोनो आपस में,अब। और बच्चे की नई आधुनिक गृहस्ती ही क्यों शानदार नौकरी भी है। पर अब दोनो का साथ एक साथ रहना और मिलना संभव नहीं है। सामान्य क्या, वर्षों बाद भी वे मिल नहीं पाते। पिता अब सामान सा मूक और पदबद्ध हो गया है। केवल अपनी टेलीफोनिक बातों से ही अपने जिंदा होने का संकेत इतनी दूर से दे सकता है, और एक दिन वह मर ही गया। अब उसकी सोच अपने प्रिय बेटे से बात कर स्थिति से अवगत करा आगे का संदेश देती है। पढ़े आनंद आएगा। जनाजा  तो   नहीं  निकला   अभी!  मेरा…,  तूं रो मत!  अभी…. बाकी हूं!  दुनियां में तेरी। भरोसा रख…!  इंतजार कर!  तेरी कसम!   सिर्फ, तेरे लिए,  मैं अब भी जिंदा हूं;   तेरे यहां,  आने से  पहले तक,  या  मेरी सुपुर्दे खाक, की खबर!  तुझ तक  पहुंचे  तब तक। वैसे ही जिंदा हूं!  मैं आज भी जैसे तूं सोचता था, तब वहां रहकर!  ...

चाहे मैं मिट्टी से खेलूं या वह मिट्टी मुझसे खेले।

चढ़ता रहा पहाड़! जिंदगी का… जिंदगी भर… रोज-ब-रोज…  कदम-दर-कदम…। राह-ए-कदम भी हुए..  दरिया-ए-दरख्त.. लोग ए लंगूर..  भोली लताएं… खुशबू फैलाते फूल..  झरते झरने,  सुरभित.. हवाएं। और न जाने कौन कौन.. याद करना भी… मुश्किल। शिद्दत से..आज भी  जा रहा हूं, चढ़ता सीढ़ियों पर सीढ़ियां निसान-ए-उम्र पार करता, आगे बढ़ता। लेकिन खेद यही है, फकत उम्र की सीढी  चढ़ तो सकता हूं, उतर नहीं सकता। डेडलॉक से गुजरता हुआ, अकेले, एकांत में कभी कभी अपने ही अतीत से अपने,  वक्त की बातें करता।  पहुंचा हूं यहां। इस मुकाम  पर, अब!  पर!  हाय!  यह क्या!   क्या उम्मीद थी!   और क्या मिला!   एक असीमित रेगिस्तान!  संबंध सारे ढीले, एक बियाबान!  ज्यादा पूछो मत,  यहां लोग गीले हैं। यहां लोगो के मुंह  गुलाबी नहीं पीले हैं। सब अब  अपने अपने में ही  हैं परेशान  बस देखने में  रंगीले हैं। असली दुनियां तो  दूर से ही दिखती है, ताज भी कुछ दूर से देखो  तभी उसकी  असली सुंदरता  पूरी दिखती...

भूल जाऊं जब कभी राहें मैं अपनी.

चीजें तो साफ थीं  दर्पण की तरह, मेरी दृष्टि ही धुंधली थी  दोष किसको दूं । क्या करूं!  मैं  गलत था!  "दृष्टि मेरी" अपनी थी!  और निर्णय भी मेरा था।  उस बार की तरह  नहीं,  इस बार कुछ अलग  मंजर था, अबकी  निगाह  मेरी, पैनी बिल्कुल दर्पण सी  साफ थी,  पर  "दृष्टिकोण में"  अंतर था। मैं गलत था  क्या करूं  " दृष्टिकोण मेरा"  था निर्णय भी मेरा था। लेकिन अबकी बार सब  ठीक किया, नजर ठीक की,  चश्मा भी पहना दृष्टि पैनी की, अपना  दृष्टिकोण  भी बदला सच कहता हूं,   'सबका सोचा,' पर ये क्या अ बकी बार भी  गलत  मैं   ही था,  क्योंकि  निर्णय इस बार मेरा नहीं,  लोगों का था। फिर भी दुनियां चलती रही उम्र कैसे भी कट ही गई। ज्यादा सोचो मत! यहां आइडियल होता ही नहीं। तुम दृष्टि अपनी,  दृष्टिकोण अपना निर्णय भी खुद ही करो। और फिर कभी गलत  नहीं रहोगे,  आगे कभी। द्वितीय पुष्प आशा में.. कितनी सुधा....भरी.  होती.. है, बीत…  जाती है, इतनी लंबी...

बचपन की बगिया में, फिर से जी आता था।

यों तो फूल  जो पथरीले,  तप्त, सूखी, जगहों  पर उगते हैं, हठीले होते हैं। रंग इनके सिंदूरी, चटक, लाल  प्रकृति से, ले ले के,  कुछ अलग से खिले होते हैं। पत्तियां तहदार  गहरे, हरे रंगों की  सलीके से लगी होती हैं। बस शूल घातक  कंटीले विषधर तन पर उगे रहते हैं लोग देखते तो हैं  एक नजर, प्यार से भर कर पूरी नजर, पर हट के  किनारे से  जाने क्यों निकल  लेते है। द्वितीय पुष्प वह  मौन  बुलावा  था  उसका!   या  खुशबू थी,  उसकी, बह आती थी,  मुझ तक,  जब, तब नन्हे नादान,  चित-पावनी  ब्राह्मण-शिशु की  निर्दोष,  गहरी,  नीली, चमकती आंखों सी। पावन करती  मुझको,  सहज ही  अंदर तक,  छू, लेती थी। एक दिन मैने पूछ ही लिया!  क्या नाम है तुम्हारा?  वो धीरे से बोली काम्या;  काम्या हूं मैं । मैं देखता रह गया उसको!  वह स्नेह-पूत   करुणा-मयी!  भरपूर!  उल्लास-पर्व सी!  चहकती!  चहुंओर फिरती रहती थी। जबकि  ना उसमे देह थ...

भौतिक रंगोरूप में, अध्यात्म छुपा रहता है।

सबके जीवन! सारी सृष्टि!  पूरी की पूरी यह व्यष्टि!  स्थिति, रूप, रंग, गुण, गंध  प्राणि पखेरू जड़ जंगम! हाय! धाय! की दौड़ ये सारी, पल में आती, पल में जाती! सब कुछ क्या है?   जीवन क्या है?  जग यह!  क्या है?  बंधनों का जाल है!  उलझा हुआ यह!  या उलझे हुए  इन बंधनों को  खोलने का खेल है!  बंधनो में जिंदगी  क्या? फंस गई है!  या फंस गए है बंध ही,  इस जिंदगी से!  पार कैसे कोई पाए!  जिए थोड़ा हंस भी पाए!  बंधनों की,  जिंदगी से,  आगे आए। सोचता हूं!  जिंदगी एक बेल है,          (लता है)  संसार की,  दीवार पर चढ़ती हुई, फनगती यह, छैलती है, फैलती है, उर बंध रूपी तंतु को  सतत आगे फेंकती है। हर घड़ी हर सांस में  जाने न कैसी आस में, लिपटती है, लपट सी  राग के संग मुंह मिलाती स्वार्थ की, ही आग में यह जल रही है। अनुराग से या भाग्य से,  कुछ कर्म के प्रभाव से!   प्रारब्ध से आरब्ध से। तान कर इन बंधनों को बीच... में बैठी... हुई है।   जा...

केवल खुशी के लिए ही जीते हैं

अंतर, 'बहुत थोड़ा होता है'  जब कोई हाथ बढ़ता है "उनकी तरफ" आता हुआ,  आहिस्ता, आहिस्ता, ऐसा केवल हमें  लगता है। जिनकी आंखे,  निर्मल, स्नेहिल हैं,"नन्हे शिशुओं सी"  वो देखती हैं,  समझ लेती है,  "अंतर्मन"  इन हिलती, तरंगित  होती टहनियों संग फूलों का,  इन हरे भरे खड़े, पेड़ों का।  देखो न, शिशु अबोध  पढ़ता है,  मुस्कुराता है,  क्षण क्षण अंतर्मन सबका और मुख भी आस पास बैठे लोगो का,  पहले समझता,  फिर हाथो को फैलाए,  उसकी ही ओर आगे बढ़ता, उछलता है। ऐसे ही,  "ऐसी ही" आंखे  जानती हैं, हर राज  मूक पेड़ों, बन लताओं,  और पत्तियों से लदी इन टहनियों का। इनकी खुशी, इनका सुख,  इनका आनंद, इनकी तृप्ति बहती है, निरंतर इनके हिलने, लहरियाने हिल दुलकने और नटने में। अपनी, छोटी बावली बिटिया सी, नम् पत्तों संग  ये  पतली,  पतली डालियां हर क्षण मुसकाती,  हिलती, हिलकती, शर्माती दुनियां, देख देख  विह्वल हो इठलाती हैं। पास आने वाले  हर, हवा के झोंके का  पूरे मन से, अभिनंदन, स...

नदी का सच, मैं ढूंढता हूं।

इस समय में  क्या क्या मिला है?  समय किस पर  बह रहा है?  क्या ये पल पल चल रहा है?  कौन है   जो… थिर खड़ा है?  गुण है कोई!   भाव है वह!   या बदलता  स्वभाव है वह!  चुप खड़ा मैं  देखता हूं!  आर है वह,  पार है वह!  बीच के,  मझधार है वह!  सत्य क्या है!  सोचता हूं, सत्य को ही  ढूंढता हूं, सत्य को ही तोड़कर मैं सत्य को ही  खोजता हूं। सत्य ही क्या मूल है?  पवित्र है! जो सार है!   इस विश्व का, हर काल में, जो वर्तता है मात्र में!  हर सांस में हर प्राण में!  सत्य क्या, अनुभूति है!  या पृष्ठ है, अनुभूति का!  अनुभूति जिसपर उतरती है, ज्ञान बन बन बुद्धि के संग  इस जगत में खेलती है। क्या प्राणियों से परे है यह!  यथार्थता है विश्व का!  यह सत्य!  क्या है?  सत्य क्या छुपता हुआ कोई राज है!  या सामने ही है पड़ा बिखरा हुआ!  सच प्रचुर, बिखरा हुआ  यदि है पड़ा; तो ढूंढते हैं क्यों इसे वीरान में!  त्याग कर सब बुद्ध, क्यो...

जुड़ जाती है जिंदगी, कुछ इस तरह,

यदि कभी तुमसे कहीं,  उस अनूठे प्रेम की जिंदगी के रास्तों  में चलते चलते,  जानता अंजानता चाहे जैसे हेठी  हो जाए, तो,  तुम, पास जाना, प्रायश्चित करना!  तुम,  कुछ...भी, कहना मत....!  उससे,  खड़े रहना..., उसे देख, रोना आए तुम्हें,  आंखे गीली करना, रो.. लेना!  वो कुछ भी कहे...,  उसे..... कहने देना। अंदर से, जो निकले  निकलने... देना, जब दोनो  चुप हो जाना,  आंखों और मुंह से, तो, तुम..  चुप.., चल देना। सुकून क्या है.. ?  शायद समझ पाओ...!  चुपके से... देखना,  उसे..! कभी, छिप.. के,  दिल पे हाथ  रखना.., और दुआ करना, किसी ने चाहा था तुम्हे, इस दुनियां में बिना तुम्हारे, उसके लिए, कुछ भी किए। आंखों में,  तसबीर... बने उसकी, बनने देना, आगे बढ़ना, बस.. मोड़ मुड़ने से  पहले... पीछे, देखना  उसके हिलते....  दुआ के हाथों को..  दिल से... सलाम कर लेना। सच कहता हूं, सुनो,  ये मंजर...  अक्श हो जाएगा. कहीं तुम्हारे गहरे...बहुत भीतर। खुश... हो जाओगे,  जब कभी भी... आओगे,...

शब्द बोलते तो नहीं, बैठ जाते हैं भीतर।

शब्द,  बोलते तो नहीं पर बैठते है,  भीतर कहीं, धीरे से,  बिना आवाज। ठीक  अपनी जगह। प्रायः पीठ पर अपने  जो जो लेकर आए,  आप में, सिस्टम से  रखते हुए। कुछ, स्थिर  संस्पर्शी अर्थ लिए स मतल पृष्ठों पर  लिखे होते है, पर गहरे  बहुत  गहरे  समाते,  असर करते,  ऊर्जा से उबलते हैं।   उठापटक मचाते अंदर ही नहीं बाहर भी फैल जाते हैं।  द्रव, तरल  बन  पानी से,  हवा से  हर ओर अपना गुरुत्व लेते,  जगह जगह।  बिन प्रयास, अपने आप प्रसर जाते हैं। रंग तो काले और सफेद  होते हैं इनके, पर ”लाल खून” जाने कैसे गरम हो जाता है, इनसे। पर गजब हैं ये,  खुद हमेशा ठंडे ही बने रहते हैं ये। इन पर, निगाह पड़ते ही। कभी कभी  देखते ही देखते, इनको कोई कोई नाचने, गाने,  अकेले में भी शर्माने  लगता है। अब  क्या क्या, कहें,  कोई कोई तो  दिल थाम के  गीत गुनगुनाने  लगता है। शब्द अक्षरों का समुच्चय होते है, अपने में दुनिया सिमटे  चुप पड़े रहते हैं। यह स्थिति,  रूप और दुन...

भावी खुशी में सब भूले हुए।

आज ’वो’… चिड़िया आई, कूकती, बड़ी होकर,  अचानक ही,  मेरे घर पर। पैदा हुई थी, कभी बगीचे की एक पतली सी  डाल ऊपर। बहुत पहले, लटकते  उन तिनकों  के खतौने में, यादें आज भी ताजा हैं  अब भी, वैसी ही, मन के कोनों में। जो उसकी मां ने.. बडे जतन से,  बड़ी मेहनत से, ठंड में, उड़ उड़ कर एक एक धागे, रेशे, पुआल  चुन चुन कर,  नन्हीं चोंच से, बार बार,  ला ला-लाकर, ढोकर,  पीठ पर नहीं अपनी नन्हीं चोंच पर। भविष्य की उम्मीद लिए खुशी खुशी  अनथक परिश्रम करते हुए भावी खुशी में सब भूले हुए। अकेले, हां अकेले, बुना था, सपनो का घोंसला उसने केवल  और केवल उन अपने बच्चों के लिए। याद है मुझे,  तब उसकी मां बार बार आती, उसके अंदर बैठती। जाने क्या क्या सोचती। देखते ही देखते  अनेकों बार  फुर्र फुर्र उड़ती। और आ आ कर  फिर फिर उसी में बैठती। एक अबोध  शिशु के लिए उसके सुरक्षा,  संरक्षा और भविष्य को  अपनी समझ और अनुमान से  हर तरह तौलती। मैं सोचता था,  कितनी मेहनत से बना रही है। घोंसला मेरे लॉन में जरूर, रहेगी, चहकेगी, क...

हे शक्ति! अदृश्य !

हे शक्ति! अदृश्य !  हो सर्वत्र वितरित ! भाव भूषित,  शून्य बन,  सबके हृदय में, हो समाहित। आओ  यहां बैठो,  नमस्कार!  बार बार, तुमको। आस्था,  निष्ठा  संवेदना के सुकोमल,  सहज, सुंदर,   तंतु ,  हम  "उर पृष्ठ के"  निज, धड़कते जीवित, सतह से, विलग करके, रोपते उस नमी में  जो करुण करुणा निवसती  तेरे हृदय में, आज से। ये हमारे  पवित्र,  जीवित उर तंतु  पुष्पित पल्लवित हों, तुम्हारी  करुणा से भरे  नम हृदय में  इस स्थापना से।   आशीष दो !  आशीष दो !  द्वितीय पुष्प यह बचा… अवशेष…,  जो तुम.. देखते हो, काग… आके… बैठता,  जिस शाख पर… अब क्या मदिर….!  वैभव!  छिपा था  अंक इसके; उन दिनों में पूजते, नवतरुणियाँ  नवरसिक, थे तब। यह मलिन  अवशेष भी तब नलिन था, खिलता हुआ।   पूरा हुआ,...अभिमान…..था,  संसर्ग…. इसका… थी लताओं को, ललक,  सानिध्य.. पाऊं। अंग में सिमटू, सिमट कर  भूल जाऊं, एक बन जाऊं,  मैं इसमें  मिल समाऊं। कुछ इस तरह...

गुलाब, गुलाब सा खिल उठता है,

भावना का पुट, और मेल मन का   मिलाकर  कोई जब कुछ बनाता है, कुछ अलग ही  स्वाद आता है, इसको चखने से। वही नींबू, वही पानी वही चीनी और थोड़ा सा नमक सेंधा, वाह! क्या कहें कैसा हो जाता है,  तब पीने में,  जब खुश हो के  कोई, दिल से,  तपती, झुलसती  गर्मी में मात्र, मुस्कुरा के रख देता है,  सामने  बहुत धीमें से। सच कहूं तो  इसे पीने से पहले ही  तन मन सब  गुलाब, गुलाब सा खिल उठता है, न कि इसे पीने से  बस इस गिलास को केवल देख लेने से। जय प्रकाश मिश्र द्वितीय पुष्प शिखर अच्छे लगते हैं, वो दूर से दिखते हैं,  आसपास को पछाड़ते कुछ अलग ही  नजर होते  हैं। उनकी  छाया भी  लंबी होती है,  उन कंपनियों सी,  जो दुनियां में बस  गिनी चुनी, कुछेक होती हैं। इन बड़ी कंपनियों की छाया लंबी हो  या न हो, पर वो सब पर छाई रहती हैं,  ये बड़ी कंपनियां इतनी बड़ी क्यों और कैसे बनीं... और बनी रहती हैं क्योंकि वे  चाहे अनचाहे जाने अंजाने सभी  छोटे बड़े की छोटी बड़ी छुपी  जरूरतों में भीतर से...

महल सपनो का बनाना चाहते हो,….तुम!

इन बदलते… घुमड़ते…  दर दर…  भटकते…  बादलों की  सेज पर महल सपनो का  बनाना। चाहते हो,….तुम! शांति संग  आनंद! उस मे थिर रहे, और फिर  बादलों के  संग…. रंगीले देश उड़ना।  चाहते हो, तुम! दूर से…  अति दूर से..  बादलों में डूब के.. नयन सुख… बिखरा हुआ जो जो धरा पर..है बिलसता  मुखर होता, बोलता है… खिलखिलाते बिहंसता है… बिन तपे.. इस सूर्य सा..  देखना भी..। चाहते हो, तुम ! संग रहकर बादलों के… घूम कर… इन  घाटियों में, सूर्य की  तपती किरण से.. त्राण लेकर…  पेड़ की  इन फुनगियों का..   मधुर कोमल… अस्तित्व को भी  दीर्घ रखकर.. स्पर्श… पाना। चाहते हो, तुम ! बादलों के  रथ पे चढ़कर शत रंजिनी,  सत रंगिनी  भूधर सुता  के देश में गगनचुंबी शिखर ऊपर  मर्त्य का यह रूप लेकर  परिभ्रमण करना।  चाहते हो, तुम ! नहीं होगा, नहीं होगा, यह कभी भी नहीं होगा। जय प्रकाश मिश्र

विश्वास, सत्य से ऊपर।

वह बैठ कर उस प्लेन में  पकड़ी रही, भर रास्ते ,  अपने सुहृद का हाथ; मनाती देवता को पार कर दो मार्ग! अबकी बार! जब जब बादलों ने राह काटी, हिल उठा था प्लेन थोड़ा  उचकता सा चल रहा था,  चेतावनी के साथ अपने स्थान पर ही बैठे रहें ! बांध लें पेटी, लगी जो  सीट के है साथ। अब होने को  है कुछ,  इस वार्निग  के बाद सोचती, मनौती  मानती, चढ़ाती जाने न  कितने प्रसादों पर प्रसाद। वह पकड़ी रही,  उड़ रहे,  उस  प्लेन को कुछ इस तरह,  छोड़ देगी तो गजब  हो जाएगा। निचला  धरातल  प्लेन का, और धरा नीचे की  यह, दोनो एक में  तुरत  मिल जाएगा। कितनी  मनौतियां  कितनी मन्नतें,  कड़ाहियां चढ़ाने को  देवी देवताओं के  थान पक्के  हो  गए। फिर तो  सब कुछ अच्छा  होना ही था, प्लेन से  सभी लोग, मय सामां सकुशल  नीचे उतर गए। उसे विश्वास पक्का था उसके नियम,  धरम, तीरथ, बरत से  ही उतने ऊपर, जहां कोई सहाय नही हो सकता था, बस उसके  किए ही, सब  लोग और वह  प्लेन...

भर कहां पाया है अब तक।

खेलना एक  शुगल था,  मेरा,  या  मन  का  सोचता हूं, भर कहां पाया है  अब तक  देखता हूं। शुरू है,  जब घुनघुना  ले हाथ में, झूमता था,  बैठकर  चुपचाप मैं। पर नहीं,  उससे भी पहले…..  खेलना .. .. मेरा गजब था, कह रही थी  एक दिन  मम्मा मेरी,  हंसती हुई। ”सुन! जब नहीं  चलता था तूं,  तो खेलता था देखकर  जाने न क्या  दिन रात भर तूं। हाथ पैरों को घुमाता  फेंकता था, खुश बहुत था,  तब नहीं था  मन तेरा यह, अहम तेरा  साथ तेरे तूं मचलता था। द्वितीय पुष्प : पावस ऋतु तम को छिपाए, अंक में, मखमली उस साल सा, सलवटों पर खेलती द्युति  फिसलती है मोतियों की। लरछियों की  हरिप्रभा ले डालियों की  कालिमा, अंक में  भर कर अंधेरे  पवन के संग  खेलती हैं। पावसों के  दिन भी क्या हैं मलिन हैं  पर प्रिय बहुत हैं, रंग गाढ़े हो चुके हैं  श्यामता को  अंक लेकर। मन हृदय के  अंक में ही  आ बसा है  देख तो अब। इठल करती  टहनियां  संग पाकर लर...

घर्षण का, चलने से क्या मतलब?

फर्क क्या था?  मेरे पंख थे वो  या मेरी पत्तियां  मेरे साथ थे,  मेरे लिए।  कोई… उड़ने के लिए तो कोई.. जीने के लिए। लोगों का मुझसे, और घर्षण का गति से क्या मतलब! एक बार सोचो तो। हिल रहे हों  साख पर…., या उड़ रहे आकाश में हों….,  पल पल… मेरा, संबल… तो थे…।  मेरे अंत तक, मेरी दौड़ तक।  मेरे साथ थे। सच यही था। दूसरों को,  इससे क्या मतलब!  सोचो तो। उड़ रहे थे,  वे जिधर…  अपना वजूद  तो था उधर.. वो कहते हैं पत्ते मेरे,  मुरझाए थे, बस हिलडुल  रहे थे, साख पर,  बोलते कुछ भी  नहीं थे। मैने कहा,  लानत है! इनपर! अरे वो तो  तपती गर्मी से अपने को बचाते  फिर रहे थे। आखिर, इन सबको इससे  क्या मतलब! सोचो तो। लोग, लोग हैं,  कुछ भी कहें, चलो हम आगे बढ़ें। उन्हे रुक के,  एक जगह खड़े हो के देखना है,  एक ही  जगह  से  देखते रहें। पंख हों या पत्तियां जीवनी शक्ति हैं, हमारी। एक जीवन का संचार करती है, तो दूसरी जीवन को नई दिशाएं देती है। इन जड़ से खड़े लोगो को,  इससे क्या म...

ओस के साथ साथ, ओस की तरह

ओस के साथ साथ ओस की तरह, मुलायम सोच,  उसकी संजीदगी, के साथ जिंदगी के पार.... जो... जो..., जैसी थी जितनी थी, उड़ती चली गई। लथपथ थी  जो जगह,  करुणा, प्रेम  भावनाओं से दिल, दिमाग,  व्यवहार, सलीकों में उम्र बढ़ने के  साथ ही साथ एक दिन  सूनी-सूखी रह गई। यथार्थ कोमल नहीं  सदा  कठोर होता है, यह भावनाओं में  नहीं  नियमों में बंधा  होता है। फिर भी,  आप थोड़ा बचाकर रखना उस ओस की,  तासीर  अपनी जिंदगी में बस इतना ही  था  आप से कहना  इन थोड़ी सी  लाईनों में भरना। पायदान : 2 हाथों में उसके  आभूषण  सोने के, नग पत्थरों के, कितने... भरे... थे, मजाल क्या.. वो कभी फूलों को छू.. भी सके। हाथो और अंगुलियों से। बोलते बच्चों से, ताजे फूलों को  वो, प्यार से छुए, सहलाए कभी, उसके पहले  लटकते चमकते  वो गहने वो नग  मासूम फूलों को हिकारत, निरादर से  देखते हैं। उन्हें नाज़ है वो सदा वैसे ही रहते हैं एक से अपरिवर्तित। फूल तो फूल  छोटे बच्चो से  बिना प्यार दुलार कुंभलाना उनका स्वभा...
चुलबुली सी यह सुबह  है गांव में,  शहर से अति दूर  यह एकांत में। साथ है,  चिड़ियों की कूंज  हर गली, हर खेत  में  भीगे हुए खलिहान में, सूखे हुए भी पेड़ में। कूकता स्वर परिंदों का उत्स सा है, फूटता  बिखरता,  कुछ इस तरह ज्यों,  लड़ी टूटी गिर रही है,  पत्थरो पर मोतियों की,  पास ही ऊंचे शिखर से। लग रहा है, झर रहा झरना कहीं पर दूर है, कभी पास है। पर मृदुल जल छिटकता है  कान पर मेरे यहां तक। कुछ इस तरह मैं सुन रहा हूं, कूकते, कलरव मचाते, कूजते स्वर पक्षियों के ;  जो घोलते हैं रस मधुर  कुछ इस तरह  हर कान में। चटकती, टूटती, रगड़ खाती डालियां, सूखी लकड़ियां  जिस तरह हैं जंगलों में, नित्य ही आवाज करतीं। ठीक वैसे बोलती है  सारी चिड़ियां,  सुन रहा हूं  गांव के हर घर गली में,  खेत में, खलिहान में। बह रहा है उत्स सुंदर इनके मुखों से लग रहा है, गोष्ठियां  हैं,  बाल शिशु की  चुलबुलाती पास में। बिना बोले,  कुछ छिपा है राज इनमे लग रहा है कह रहे हैं,  जागो, उठो, जल्दी करो। बोलते ह...

एक बार जी लो फिर।

  हर दिन, ये शाम,  और उसके साथ  एक अजीब सी उठा पटक, मेरे भीतर, शुरू हो जाती है, बढ़ते स्याह अंधेरों के साथ। चुटुकती सी, एक चुहल लेकर  'पर’ लगाए, पंछियों के गहरे, सुदूर आकाश में, उड़ती उभरती उसकी पृष्ठभूमि से नन्हीं फुदकती चुहिया सी। मन के अंधेरी गलियों की रजस्वला स्मृतियों को कुरेदती,  उसके खुराफाती बिलों से निकल,  फुदकती है हर रोज,  नए नए चूजों सी।  मुरकती है,  चटकती कलियों सी, अजीब सी खुशी  और उलझन लिए अजीब सी जद्दो-जहद के बीच  जेहन में, उभर आती है, रोज रोज। ना जाने, कैसी है  और कैसी थी, इससे जुड़ी दीवानगी!  जो शाम के साथ साथ!  बढ़ती जाती है, बढ़ते स्याह होते  धुंधलकों में;  मुझमें। मैं क्यों,  कैसे और कितना!  बदलने लगता हूं, अपनी तसबीर से अलहिदा  कुछ,  खुद से अलग। ऐसा लगता है कुछ हावी होने को है, मन पर,  मुझ पर,  अपनी अस्पष्ट, भारी सी छाया लिए,  समेटता है, मुझको अपनी अंकुशी में अपने अंक में कुक्षि में  हर बार अकेला पाकर। मट-मैला डाबर सा,  पानी कहीं हिलता हो, हव...